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२२० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
जैन भिक्षुणियों को दिया गया था, उतनी सतर्कता का निर्देश बौद्ध भिक्षुणियों को नहीं दिया गया था । उदाहरणस्वरूप - जैन भिक्षुणियों को आहार की शुद्धता परखने तथा उसे ग्रहण करने के ४७ नियम थे । वस्त्र प्राप्त करने के सम्बन्ध में भी वे बौद्ध भिक्षुणियों की अपेक्षा अधिक सतकता का पालन करती थीं ।
दोनों संघों में भिक्षुणियाँ अध्ययन के प्रति गहरी रुचि रखती थीं । ऐसी अनेक भिक्षुणियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जो आगम ग्रन्थों तथा त्रिपिटकों में निष्णात होती थीं। दिन का अधिकांश समय ध्यान, तप तथा स्वाध्याय में ही व्यतीत होता था
दोनों संघों में भिक्षुणियों की सुरक्षा की व्यापक व्यवस्था की गई थी । एक स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती थी तो उसकी सुरक्षा का पूरा उत्तरदायित्व संघ वहन करता था । भिक्षुणियों को काम-वासना के आनन्द से विरत रहने को कहा गया था । मैथुन का सेवन करने पर उनके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था थी । इसी प्रकार सुन्दर दीखने के लिए अपने को आभूषण तथा माला से सजाना सर्वथा निषिद्ध था । भिक्षुणियों के शील- सुरक्षार्थं ही उन्हें भिक्षुओं के साथ रहने की सलाह दी गई थी तथा भिक्षुओं को यह भी निर्देश दिया गया था कि वे भिक्षुणी की रक्षा करें ।
जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में भिक्षु की अपेक्षा भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी । प्रत्येक भिक्षुणी को चाहे वह कितनी भी योग्य एवं ज्येष्ठ हो - हर अवस्था में भिक्षु का सम्मान करना पड़ता था । संगठनात्मक व्यवस्था में भी सर्वोच्च पद भिक्षु के लिए सुरक्षित थे ।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि जैन एवं बौद्ध धर्म के भिक्षुणियों के नियमों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं था तथा उनकी स्थिति भी प्राय: समान थी ।
जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी संघ की स्थापना उन नारियों के लिए एक वरदान सिद्ध हुई जो समाज से किसी प्रकार संत्रस्त थीं । ऐसी अनेक नारियाँ थीं जिनकी शारीरिक रचना की विद्रूपता के कारण विवाह नहीं हो पाता था । नारी की अत्यधिक सुन्दरता भी उसके संरक्षक के लिए एक समस्या थी । सुन्दर कन्या को पाने के लिए अनेक व्यक्ति इच्छुक रहते थे जिससे माता-पिता को यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वे उस कन्या को किस व्यक्ति विशेष को दें । बहुत सी ऐसी नारियाँ थीं जो बाल-विधवा थीं अथवा जिनके विवाह के कुछ समय के पश्चात् ही पति की मृत्यु हो गई थी । कुछ नारियाँ योग्य होते हुये भी पति का पूरा
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