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२१२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ भाजनम् ।" इसके उत्तर में हर्षवर्द्धन कहता है कि जब मैं कार्य समाप्त कर लूंगा, तब हम दोनों काषाय वस्त्र पहनेंगे। "इयं तु ग्रहीष्यति मयेव समं समाप्तकृत्येन काषायणि ।"'यहाँ "काषाय" वस्त्र धारण करने से तात्पर्य बौद्ध भिक्ष एवं भिक्षुणी होने से है। हर्षचरित में आचार्य दिवाकर मित्र को जिनके सद्प्रयत्नों से राज्यश्री का पता लगा था, काषाय वस्त्र धारण किये हुये बौद्ध भिक्षु के रूप में प्रस्तुत किया गया है । आठवीं शताब्दी में भवभूति ने अपने मालप्तीमाधव नामक नाटक में सौगत परिवाजिका कामन्दकी का उल्लेख किया है। उसकी तीन शिष्याएं भी थीं जिनके नाम अवलोकिता, बुद्धरक्षिता तथा सौदामिनी हैं। इसी प्रकार सुबन्धु (जिनका समय कुछ विद्वान हर्ष के पूर्व तथा कुछ पश्चात् बताते हैं) ने अपने वासवदत्ता नामक ग्रन्थ में एक बौद्ध भिक्षणी का वर्णन किया है। वह भिक्षुणी लाल वस्त्र (काषाय) धारण करने वाली तथा तारा की भक्त बतायी गयी है।
उपर्युक्त उदाहरणों से आठवीं शताब्दी ईस्वी तक बौद्ध भिक्षुणियों के वर्तमान होने की सूचना प्राप्त होती है। आठवीं शताब्दी के पश्चात् कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं हैं जो बौद्ध भिक्षणियों के वर्तमान होने की सूचना दे । यह सम्भव है कि इसके पश्चात् भी छिट-पुट कुछ भिक्षुणियाँ रही हों, पर उनके सम्बन्ध में हमें कोई भी साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है। अतः भारत में बौद्ध भिक्षुणियों के अस्तित्व की यही अन्तिम सीमा मानी जा सकती है। बौद्ध भिक्षुणी-संघ का ह्रास
बौद्ध भिक्षुणी-संघ के ह्रास की प्रक्रिया तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईस्वी से ही प्रारम्भ हो जाती है। चतुर्थ शताब्दी ईस्वी में आने वाले चीनी यात्री फाहियान ने केवल मथुरा में भिक्षुणियों का उल्लेख किया है। सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने प्रायः पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया था। ह्वेनसांग ने विहारों तथा उनमें रहने वाले भिक्षुओं का जो विस्तृत विवरण दिया है-उससे यह स्पष्ट होता है कि समूह के रूप में उस समय केवल मथुरा में ही कुछ बौद्ध भिक्षुणियों का अस्तित्व रह गया था। ह्वेनसांग के विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि श्रावस्ती एवं कपिलवस्तु (जो भिक्षुणियों के प्रमुख केन्द्र थे) के विहार पूरी तरह
१. हर्षचरित-अष्टम उच्छ्वास ।
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