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जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : ३ प्रकार सूर्यासावित्री के द्वारा रचित मन्त्र में स्त्री को अपने सास-ससुर के घर की साम्राज्ञी होने की कल्पना की गयी है।' ..
इससे यह स्पष्ट होता है कि वैदिककालीन नारियाँ गृहस्थ-आश्रम में रहकर ही विद्या के प्रति समर्पित रहा करती थीं। यद्यपि कुछ नारियों में अध्यात्मिकता के प्रति गहरी रुचि थी, जैसे-वाक् आम्भृणी, जो देवताओं से अपनी अभिन्नता स्थापित करती है। उपनिषत्काल में श्रमण-परम्परा एवं स्त्रियाँ
बृहदारण्यक्, छान्दोग्य, मुण्डक आदि कुछ प्राचीन उपनिषदों में ऐसे अनेक शब्दों का उल्लेख है, यथा-तपस्वी, संन्यासी, परिव्राजक-जिनसे वैदिककालीन श्रमण-परम्परा की निरन्तरता का बोध होता है। छान्दो ग्योपनिषद् में ब्रह्म तक पहुँचने के दो प्रकार के मार्गों का उल्लेख किया गया है। पहला मौन द्वारा और दूसरा आत्मसंयम एवं तपस्या के द्वारा। प्रश्नोपनिषद् में महर्षि पिप्पलाद ब्रह्म को जानने के लिए तपस्या को आवश्यक बताते हैं। इसी प्रकार बहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार भी ब्रह्म को जानने के लिए वेदों का अध्ययन, यज्ञ, दान और तप आवश्यक है । इनके द्वारा व्यक्ति अपनी दूषित चित्त-वृत्तियों का दमन कर मुनि हो जाता है । पुनः इसी उपनिषद् में ब्रह्म को जानने के लिए आत्मज्ञान और साथ ही गृह-त्याग को आवश्यक बताया गया है। याज्ञवल्क्य ऋषि द्वारा अपनी सम्पत्ति एवं पत्नियों को छोड़कर वन में जाने का उल्लेख है।" यहाँ पर याज्ञवल्क्य के इस कार्य के लिए 'प्रव्रज्या' शब्द का प्रयोग किया गया है।
इस उपनिषद् से यह भी स्पष्ट होता है कि परिव्राजक (संन्यासी) लोग गृह त्याग के समय अपनी सम्पत्ति एवं पत्नियों को छोड़ देते थे और निस्पृह भाव से संन्यास-आश्रम में प्रविष्ट होते थे।
इसी उपनिषद् से ज्ञात होता है कि जब ऋषि याज्ञवल्क्य संसार से विरक्त होकर वन में जाने लगे तो उनकी पत्नी मैत्रेयी ने पूछा कि यदि सम्पूर्ण भूमण्डल धन से पूर्ण हो जाय तो क्या मैं उससे मुक्ति प्राप्त कर १. ऋग्वेद, १०/८५/४५. २. छान्दोग्योपनिषद्, ८/५. ३. प्रश्नोपनिषद्, १/२. ४. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४/४. ५. वही, ४/४.
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