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२: जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
अथर्ववेद में भी ऐसे मुनियों का उल्लेख है, जिन्होंने अपनी साधना से रहस्यमयी शक्तियों को प्राप्त कर लिया था।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वेदों में प्रयुक्त मुनि, यति, तपस् आदि शब्द केवल पुरुषों से ही सम्बन्धित हैं। किसी भी स्त्री के सन्दर्भ में इन शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। ___ ऋग्वेद की "सर्वानुक्रमणिका" में घोषा, रोमशा, अपाला, विश्ववारा, सूर्यासावित्री, वाक् आम्भृणी आदि स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं, जिन्हें ब्रह्मर्षियों के समान वेद-सूक्तों की रचना करने वाला कहा गया है। उनके द्वारा रचित कुछ सूक्तों में तो उनके नाम भी प्राप्त होते हैं। उदाहरणस्वरूप-विश्ववारा आत्रेयी ने ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के २८ वें सूक्त की रचना की थी । अपाला ने आठवें मण्डल के ९१ वें सूक्त, जिसमें ७ मन्त्र हैं, की रचना की थी। सूर्यासावित्री दशवें मण्डल के ८५ वें सूक्त की ऋषिका थी, जिसमें ४७ मन्त्र हैं। काक्षीवती घोषा ने दशवें मण्डल के ३१वें तथा ४०वें सुक्त की रचना की थी, जिसमें प्रत्येक में १४-१४ मन्त्र हैं । वाक् आम्भृणी ने ऋग्वेद के दशवें मण्डल के १२५ वें सूक्त की रचना की थी, जिसमें ८ मन्त्र हैं। वाक् आम्भृणी ने दैवीय शक्तियों के गुणों को अपने पर आरोपित भी किया है। एक मन्त्र में वह कहती है "मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों तथा विश्वदेवों के साथ विचरती हैं, मैं मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ"। इसी प्रकार एक अन्य मन्त्र में वह अपने को वायु से अभिन्न कहती है।
यद्यपि ये स्त्रियाँ कवित्व-शक्ति से युक्त रही हैं किन्तु इनके लिए भिक्षुणी, संन्यासिनी या परिवाजिका शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक काल की नारियाँ भिक्षुणी या संन्यासिनी नहीं बनती थीं। उस युग में गृहस्थ धर्म को त्यागकर भिक्षावृत्ति का जीवन व्यतीत करने वाली हमें किसी भी नारी का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इसके विपरीत, नारियों के विवाह करने तथा गृहस्थ-धर्म का पालन करने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। आश्विन देवताओं की कृपा से चर्मरोग के ठीक हो जाने पर घोषा के विवाह का उल्लेख है। शची अपने पुत्र-पुत्रियों को महान् बनाने को कल्पना करती है। इसी १. अथर्ववेद, ७/७४/१. २. ऋग्वेद, १०/१२५/१. ३. वही, १०/१२५/८. ४. वही, १०/१५९/४.
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