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प्रथम अध्याय
जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी संघ की स्थापना
भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीन काल से ही श्रमण परम्परा के अस्तित्व के संकेत प्राप्त होते हैं । महावीर एवं बुद्ध के पूर्व न केवल श्रमण परम्परा का अस्तित्व था, अपितु उसमें स्त्रियाँ भी दीक्षित होती थीं, यद्यपि उस युग में स्त्रियों के दीक्षित होने सम्बन्धी उल्लेख अत्यन्त विरल हैं । वैदिक काल में श्रमण परम्परा एवं स्त्रियाँ
ऋग्वेद में ऋषि, मुनि, यति, वातरशना, तपस् आदि ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो उस युग में श्रमण परम्परा के अस्तित्व के सूचक कहे जा सकते हैं । ऋग्वेद के एक मन्त्र में ऐसे सात ऋषियों का उल्लेख है, जिन्होंने तपस्या के द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त की थी। ऋग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र में मुनि और वातरशना शब्द का प्रयोग हुआ है, जो पीला और मटमैला वस्त्र पहनते थे । इस मन्त्र में 'वातरशना' मुनि का विशेषण है । " वातस्य " शब्द इस अर्थ का भी द्योतक है कि ये मुनि निर्वस्त्र रहते थे क्योंकि इसका अर्थ है - "वात ही जिनका वस्त्र है। इसी सूक्त के दूसरे मन्त्र में यह कहा गया है कि वे ( मुनि) मृत्यु पाने वाले नश्वरों से भिन्न थे । ऋषि-मुनि के समान ही " यति" शब्द का भी उल्लेख मिलता है । यति लोग अपने को मूल रूप से भृगु मुनि से सम्बन्धित मानते थे । ॠग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र में यतियों का उल्लेख हुआ है ।" इन मन्त्रों से यह प्रकट होता है कि यति लोग अपनी तपस्या के द्वारा दिव्य शक्तियों से युक्त हो जाते थे ।
१. ऋग्वेद, १०/१०९/४.
२. " मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला
वातस्यानु भाजियन्ति यद्देवासो अविक्षत” - वही, १० / २३६ / २.
३. वही, १० / १३६ / ३.
४. वही, ८ / ६ / १८. ५. वही, १०/७२/७.
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