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भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्ध एवं संघ में भिक्षुणी की स्थिति : १९९ श्रमण परम्परा के जैन एवं बौद्ध धर्मों की संगठनात्मक व्यवस्था पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है ।
दोनों धर्मों में सद्यः प्रवजित भिक्षु को चिर-प्रवजित भिक्षुणी से श्रेष्ठ माना गया था तथा इसी आधार पर भिक्षुणी को भिक्षु की वन्दना तथा अभिवादन आदि करने का निर्देश दिया गया था। दोनों धर्मों में संगठनात्मक व्यवस्था के सर्वोच्च पद भिक्षु के लिए ही सुरक्षित थे। दोनों धर्मों में भिक्षुणी योग्य होते हुए भी किसी भिक्षु को उपदेश नहीं दे सकती थी।
जैन धर्म में राजीमती द्वारा भिक्षु रथनेमि को तथा ब्राह्मी एवं सुन्दरी द्वारा भिक्षु बाहुबलि को उपदेश देने का आपवादिक उदाहरण प्राप्त होता है, परन्तु इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी साहित्यिक अथवा आभिलेखिक साक्ष्य में किसो भिक्षुणी को भिक्षु के उपदेशक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। भिक्षुणियाँ केवल गृहस्थजनों को ही धर्मोपदेश दे सकती थीं। इसके अतिरिक्त दोनों धर्मों में भिक्षु की शिष्याओं के रूप में भिक्षु'णियों के उल्लेख हैं, परन्तु भिक्षुगी के शिष्य के रूप में किसी भिक्षु का
उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। __जैन एवं बौद्ध-दोनों धर्मों के भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्धों का सम्यक् अनुशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि दोनों संघों में भिक्षु की अपेक्षाकृतं भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी यद्यपि समाज में उसे गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था।
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