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भिक्षु-भिक्षुणो सम्बन्ध एवं संघ में भिक्षुणी की स्थिति : १९७ की अन्तेवासिनी बोधि का उल्लेख है। परन्तु कहीं भी किसी भिक्षुणी के शिष्य के रूप में किसी भिक्षु का उल्लेख नहीं मिलता-यह स्पष्ट रूप से भिक्ष की श्रेष्ठता का द्योतक है। कोई पुरुष किसी स्त्री का शिष्य नहीं हो सकता था। यद्यपि अमरावती से प्राप्त एक अभिलेख (Amaravati Buddhist Stone Inscription) में एक भिक्षणी के लिए उपाध्यायिनी (उवझायिनी) शब्द का प्रयोग मिलता है. परन्तु उपयुक्त तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह केवल भिक्षुणियों की ही उपाध्यायिनी होती थी-भिक्षु समुदाय की नहीं।
इसके अतिरिक्त भी कुछ ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भिक्षु की अपेक्षा भिक्षणो की स्थिति निम्न थी। बौद्ध धर्म का उच्चतम बुद्ध-पद भिक्षुणियाँ नही प्राप्त कर सकती थीं। अंगुत्तर निकाय के अनुसार इस बात की थोड़ी भी सम्भावना नहीं है कि स्त्रियाँ सम्यक सम्बद्ध हो सकती हैं। इस उच्चतम पद को केवल पूरुष ही प्राप्त कर सकता था। इस प्रकार भिक्षुणियों को बुद्धपद की प्राप्ति की आशा से ही विहीन कर दिया गया । बुद्ध ने किसी भी भिक्षुणी को इतनी महत्ता नहीं प्रदान की थी जितनी कि सारिपुत्र एवं मौद्गल्यायन को । बुद्ध के अनुसार वे किसी सारवान बड़े वृक्ष की सबसे बड़ी शाखा थे, जिनके न रहने पर भिक्षु-संघ सूना-सूना मालूम पड़ता था। इसके अतिरिक्त, बौद्ध धर्म की जितनी भी संगीतियाँ हुई, सबका अध्यक्ष कोई न कोई भिक्षु ही हुआ-कोई भी भिक्षुणी अध्यक्ष पद को सुशोभित न कर सकी, यद्यपि ज्ञान एवं विद्यार्जन के क्षेत्र में वे भिक्षुओं से किसी भी प्रकार कम नहीं थीं।
भिक्षुणी योग्य होते हुये भी किसी भिक्षु को उपदेश नहीं दे सकती थी। उपदेश देने का अधिकार केवल भिक्षु को ही था। भिक्खनी पाचित्तिय नियम के अनुसार उन्हें प्रत्येक १५वें दिन उपोसथ की तिथि तथा उवाद (उपदेश) का समय पूछना पड़ता था। इस प्रकार केवल लिंग के आधार पर भिक्षुणियों को उपदेश देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त उपसम्पदा वारणा, उपोसथ आदि के सम्बन्ध में हम देखते हैं
1. List of Brahmi Inscriptions, 1286. २. अङ्गुत्तर निकाय, १।१५. ३. संयुत्त निकाय, ४५।२।३; ४५।२।४.
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