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१९० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ में सूक्ष्म शरीरधारी जीव रहते हैं। इन्हीं कारणों के आधार पर कुछ ग्रन्थों में तो स्त्रियों की दीक्षा का भी निषेध कर दिया गया।'
भिक्षु-भिक्षुणी के पारस्परिक मेलजोल के विषय में मूलाचार में काफी सतर्कता बरती गई तथा इस सम्बन्ध में अनेक नियमों का उल्लेख किया गया था। तरुण श्रमण किसी भी परिस्थिति में अकेली तरूणी श्रमणी के साथ वार्तालाप नहीं कर सकता था। यदि भिक्षु इस आज्ञा का उल्लंघन करता था तो वह-आज्ञाकोप, अनवस्था, मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश एवं संयमविराधना-नामक पाँच दोषों से युक्त माना जाता था। कन्या, विधवा अथवा भिक्षणी के साथ क्षणमात्र भी वार्तालाप करना निन्दा का कारण बन सकता था । भिक्षु और भिक्षुणी के मध्य वार्ता का विषय धार्मिक प्रश्नों तक ही सीमित रहता था। वे व्यर्थं का वार्तालाप नहीं कर सकते थे। भिक्षुणी यदि कोई प्रश्न पूछने भिक्षु के पास जाती थी तो भिक्षु को वहाँ अकेले रहकर उत्तर देने की आज्ञा नहीं थी, अपितु उसे कुछ अन्य भिक्षुओं के सामने उत्तर देने का निर्देश दिया गया था। परन्तु यदि भिक्षुणी गणिनी को आगे करके प्रश्न पूछती थी, तो भिक्षु अकेले भो प्रश्न का उत्तर दे सकता था।
भिक्षुओं को भिक्षुणियों के उपाश्रय में सोना, अध्ययन करना तथा भोजन करना सर्वथा निषिद्ध था । क्योंकि भिक्षुणी की समीपता से उसके चित्त के चंचल होने को सम्भावना थी। भिक्षणियों के उपाश्रय में ठहरने वाला भिक्षु लोकनिन्दा तथा व्रतभंग दोनों का पात्र माना गया था।"
भिक्षुणियों को भिक्षु की वन्दना आदि करने का विधान था । भिक्षुणियों को यह निर्देश दिया गया था कि वे आचार्य (सूरि) की पाँच हाथ से, उपाध्याय को छः हाथ से, भिक्षु की सात हाथ की दूरी से वन्दना
१. "इत्थीसु ण पावया भणिया''-पुत्तपाहुड, २४-२६. २. मूलाचार, ४/१७९. ३. वही, ४/१८२. ४. वही, ४/१८०. ५. वही, १०/६१-६२.
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