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भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्ध एवं संघ में भिक्षुणी की स्थिति : १९१ करे।' बहुत दिन की प्रव्रजित भिक्षुणी से सद्यः प्रव्रजित भिक्षु श्रेष्ठ माना गया था ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म के श्वेताम्बर तथा दिगम्बरदोनों सम्प्रदायों में भिक्षु की तुलना में भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी। दोनों सम्प्रदायों में “पुरुषज्येष्ठधर्म" के सिद्धान्त को स्वीकार किया था । दोनों ही सम्प्रदायों में सद्यः प्रव्रजित भिक्षु चिरप्रव्रजित भिक्षणी से श्रेष्ठ माना गया था तथा भिक्षुणियों को भिक्षु की वन्दना तथा कृतिकर्म करने का निर्देश दिया गया था। बौद्ध संघ में भिक्षुणी को स्थिति
जैन धर्म के समान बौद्ध धर्म में भी भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी। बुद्ध द्वारा प्रतिपादित अष्टगुरुधर्मों से ही भिक्षु की तुलना में भिक्षुणी की निम्न स्थिति स्पष्ट हो जाती है। प्रथम अष्टगुरुधर्म नियम के अनुसार सौ वर्ष की उपसम्पन्न भिक्षुणी को सद्यः उपसम्पन्न भिक्ष को अभिवादन करना, अंजलि जोड़ना तथा उसके सम्मान में खड़ा होना पड़ता था। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह था कि योग्यता में भिक्षुणी कितनो भी ज्येष्ठ क्यों न हो, उसे प्रत्येक दशा में भिक्षु का सम्मान करना था। इसके विपरीत भिक्षु किसी भी भिक्षुणी के सम्मान में न तो खडा हो सकता था और न अंजलि जोड़ सकता था । यदि भिक्षु किसी भिक्षुणी को सम्मान प्रदर्शित करने के लिए अभिवादन आदि करता था, तो वह दुक्कट के दण्ड का दोषी माना जाता था । यहाँ हम देखते हैं कि योग्यता को बिल्कुल नकार दिया गया था और लिंग के आधार पर ही ज्येष्ठता का निर्धारण किया गया था। बौद्ध संघ में इस अनुचित नियम के विरोध में भिक्षुणियों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया के भी दर्शन होते हैं। अष्टगुरुधर्म स्वीकार कर लेने के उपरान्त महाप्रजापति गौतमी ने बुद्ध से यह अनुमति चाही थी कि भिक्षु-भिक्षुणियों के मध्य अभिवादन-अभ्युत्थान तथा समी
१. मूलाचार, ४/१९५. २. "बहुकालप्रव्रजिताया अप्यार्यिकाया अद्य प्रवर्जितोऽपि महांस्तथेन्द्रचक्रधरादीनामपि महान् यतोऽतो ज्येष्ठ इति"
-वही, १०/१८-टीका। ३. चुल्लवग्ग, पृ० ३७८.
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