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१३२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ ___ गणिनी पद को धारण करने वाली भिक्षुणी में अनेक गुणों तथा योग्यताओं का होना आवश्यक था। वह अत्यन्त विदुषी तथा प्रशासनिक कार्यों में दक्ष होती थी। यद्यपि वह स्वाध्याय तथा ध्यान में सदा लीन रहती थी तथापि जिनशासन की रक्षा का प्रश्न उपस्थित हो जाने पर वह उग्र रूप धारण कर लेती थी। शिक्षा प्रदान करने में वह किसी प्रकार का प्रमाद या आलस्य नहीं करती थी। गणिनी को गुणसम्पन्न कहा गया है। वह संघ की मर्यादा की रक्षा में सदा तत्पर रहती थी तथा साध्वियों की संख्या में वृद्धि का सतत प्रयत्न करती थी।' मथुरा से प्राप्त जैन अभिलेखों में भिक्षुओं के लिए "वाचक" या "गणिन वाचक" विशेषण का प्रयोग किया गया है । वाचक का अर्थ उपदेशक से है। अतः यह प्रतीत होता है कि जैन भिक्षुणी-संघ में गणिनी भी भिक्षुणियों को धर्मोपदेश दिया करती थी। इस प्रकार शिक्षा के महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व का वह निर्वहन करती थी।
गणिनी की नियुक्ति किस प्रकार की जाती थी, इसकी हमें कोई सूचना नहीं प्राप्त होती। मयहरिया (महत्तरिका)
यह पद भी भिक्षणी-संघ का एक महत्त्वपूर्ण पद था। गच्छाचार से ज्ञात होता है कि भिक्षुणियों को अपने अतिचारों की उसके समक्ष आलोचना करनी पड़ती थी। मूलाचार में गणिनी को ही महत्तरिका कहा गया है।' सम्भवतः वह योग्य वृद्धा भिक्षुणी के समान आदर की पात्र रही होगी।
जैन भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था में भिक्षुणियाँ इन्हीं पदों पर अधिष्ठित की जाती थीं। इसके अतिरिक्त संघ में आचार्य एवं १. "समा सीसपडिच्छीणं, चोअणासु अणालसा
गणिणी गुणसंपन्ना, पसत्थपुरिसाणुगा संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे सज्झायज्झाणजुत्ता य, संगहे अ विसारआ
-गच्छाचार, १२७-२८. २. List of Brahmi Inscriptions, 52,53,56 etc. ३. गच्छाचार, ११८. ४. "गणिनी महत्तरिका" मूलाचार, ४१९२-टीका.
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