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________________ संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड प्रक्रिया : १३१ तथा चूर्णियों में । अतः इसकी वास्तविक स्थिति के बारे में कुछ स्पष्ट ज्ञात नहीं हो पाता । छेद ग्रन्थों में सर्वत्र "पवत्तिणी वा गणावच्छेइणी” कहा गया है - इससे गणावच्छेदिनी की स्थिति प्रवर्तिनी के समान ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है । प्रवत्तिनी के समान इस पद के लिए भी आचार - प्रकल्प की सम्यक् जानकारी आवश्यक थी, क्योंकि गणावच्छेदिनी पद के लिए भी ठीक वही योग्यताएँ निर्धारित थीं, जी प्रवर्तिनी पद के लिए थीं । प्रवत्तनी के समान योग्यता रखते हुए भी इसकी स्थिति प्रवत्तनी से कुछ भिन्न प्रतीत होती है । उदाहरणस्वरूप प्रवर्तिनी को हेमन्त, ग्रीष्म तथा वर्षाऋतु में क्रमशः २, ३ भिक्षुणियों के साथ रहने का विधान था, वहीं गणावच्छेदिनी इन्हीं ऋतुओं में ३ तथा ४ की संख्या से कम भिक्षुणियों के साथ यात्रा आदि नहीं कर सकती थी । २ गणिनी संगठनात्मक व्यवस्था में गणिनी की क्या स्थिति थी; यह स्पष्ट नहीं हो पाता । नियमों का अतिक्रमण करने पर भिक्षुणियों के लिए जो दण्ड की व्यवस्था थी, उससे प्रतीत होता है कि गणिनी का पद अभिषेका के समान था | जैन दण्ड-व्यवस्था में अपराध करने पर पद की स्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त गुरुतर होता जाता था । उच्च पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड तथा निम्न पदाधिकारियों के लिए नरम दण्ड की व्यवस्था थी । उदाहरणस्वरूप भिक्षुणी को जल के किनारे ठहरना तथा वहाँ स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध था । इस नियम का अतिक्रमण करने पर गणिनी तथा अभिषेका को छेद प्रायश्चित्त तथा प्रवर्तिनी को मूल प्रायश्चित्त देने का विधान था । र अभिषेका का पद प्रवर्तिनी से निम्न था, अतः गणिनी का पद भी प्रवर्तिनी से निम्न प्रतीत होता है । परन्तु कभी-कभी गणिनी प्रवर्तिनों के समकक्ष मानी गई है । अतः गणिनी के विषय में यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि यह पद प्रवर्तितो तथा अभिषेका से किन अर्थो में भिन्न था। १. व्यवहार सूत्र, ५ /१६. २. वही, ५ / १-४, ५/५-८; ५/९-१०. ३. "गणिनो अभिषेका सा छेदे, प्रवर्तिनी पुनर्मूले तिष्ठतीति" - बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २४१० - टीका. ४. "गणिनी प्रवर्तिनी सा भिक्षुसदृशी मन्तव्या " Jain Education International - वही, भाग षष्ठ, ६१११ - टीका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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