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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १३३ उपाध्याय नामक दो उच्चस्थ पदाधिकारी होते थे। परन्तु इन पदों पर केवल भिक्षु ही आसोन हो सकता था, कोई भिक्षुणी नहीं। भिक्षुणी को बिना आचार्य या उपाध्याय के रहना निषिद्ध था। संघ के नियमों के अनुसार ३ वर्ष की दीक्षा वाला भिक्षु १० वर्ष की दीक्षा वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा ५ वर्ष की दीक्षा वाला भिक्षु ६० वर्ष की दीक्षा वाली भिक्षुणी का आचार्य बन सकता था ।' दिगम्बर जैन भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था
दिगम्बर जैन भिक्षणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था के सम्बन्ध में हमें अत्यन्त अल्प सूचना प्राप्त होती है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भिक्षुणियों के संघ-प्रवेश, उनकी शारीरिक योग्यताओं आदि के सम्बन्ध में जो नियम हैं, वे नियम यहाँ भी लागू होते रहे होंगे। बहुत सम्भव है कि इन नियमों में और कठोरता का समावेश किया गया हो । दिगम्बर भिक्ष को संघ-प्रवेश के पूर्व अपने माता-पिता, स्त्री, पुत्र से पूछना आवश्यक था तथा उसकी अनुमति मिलने पर ही वह आचार्य के पास जाकर दीक्षा की याचना कर सकता था। उसके लिए भी केश-लुंचन आवश्यक था-यह अनुमान करना अनुचित नहीं कि ये सारे नियम स्त्रियों के सम्बन्ध में लागू होते रहे होंगे।
संघ-व्यवस्था में भिक्षुणियों के लिए कौन-कौन से पद थे, उनकी आवश्यक योग्यता एवं कर्त्तव्य क्या थे-इसकी भी अत्यन्त अल्प सूचना प्राप्त होती है।
मूलाचार में दिगम्बर भिक्षुणियों को "अज्जा (आर्या)" कहा गया है। इनके लिए “संयती'४ तथा “तपस्विनी'५ शब्द का भी प्रयोग किया गया है ! भिक्षुणी बनने के पूर्व उसे किन नियमों एवं व्रतों का पालन करना पड़ता था तथा वह नियमों को कब तक सीखती थी, इसका उल्लेख नहीं प्राप्त होता। सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय की भिक्षुणियों के नियम के समान इसके भी नियम रहे होंगे ।
१. व्यवहार सूत्र, ७/१९-२०. २. प्रवचनसार, ३/२. ३. वही, ३/३. ४. "आर्याणां संयतीनां"-मूलाचार, ४/१८४-टीका; ४/१९१-टीका. ५. "आर्याणां तपस्विनीनां"-वही, ४/१८५-टीका.
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