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जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों की दिनचर्या : १०५ बौद्ध भिक्षुणी के मृतक-संस्कार
बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणी की मृत्यु के पश्चात् क्या-क्या संस्कार किए जाते थे- इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता। बौद्ध भिक्षुणी को शस्त्र खोजकर रखना, मत्य की प्रशंसा करना तथा मरने के लिए किसी को प्रेरित करना सर्वथा निषिद्ध था।' ऐसी भिक्षुणी पाराजिक दण्ड की भागी होती थो और संघ से सर्वदा के लिए निकाल दी जाती थी। थेरी गाथा में भिक्षुणी सिंहा का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसने आत्महत्या का प्रयत्न किया था। सात वर्ष की साधना के पश्चात् भी जब उसके चित्त को शांति नहीं मिली, तो उसने एक घने वन में फाँसी लगाकर मरने का निश्चय किया। परन्तु जैसे ही वह फाँसी गले में डाल रही थी कि उसका चित्त विमुक्त हो गया। मृत्यु के समय यदि भिक्षणी अपने दायभाग (परिक्खार) संघ को देना चाहे तो वह सामान भिक्षुणी-संघ का होता था, भिक्षु-संघ उसे नहीं ग्रहण कर सकता था। परन्तु यदि शिक्षमाणां तथा श्रामणेरी मत्यु के समय अपना दायभाग संघ को देना चाहे तो वह सामान भिक्षु-संघ का होता था, भिक्षुणी-संघ का नहीं । तुलना
हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियाँ अध्ययन एवम् अध्यापन में गहरी रुचि रखती थीं। जैन भिक्षुणियाँ ग्यारह अंगों की तथा बौद्ध भिक्षुणियाँ त्रिपिटक तथा सूत्रों की पण्डिता हुआ करती थीं। जैन संघ के दोनों सम्प्रदायों में भिक्षुणियों को कुछ ग्रन्थों का पढ़ना निषेध किया गया था, परन्तु इस प्रकार के किसी निषेध का उल्लेख बौद्ध भिक्षुणियों के सन्दर्भ में नहीं प्राप्त होता। दोनों धर्मों के अनुसार भिक्षुणी किसी भिक्षु को उपदेश नहीं दे सकती थी, परन्तु अपनी शिष्याओं तथा गृहस्थ भक्तों को उपदेश देने का उन्हें पूरा अधिकार था। इसी प्रकार वे ध्यान करने में भी प्रवीण थों। यद्यपि ध्यान करती हुई किसी जैन भिक्षुणो का उल्लेख नहीं प्राप्त होता, परन्तु उनके द्वारा व्रत-उपवास करने, कायोत्सर्ग करने तथा आतापना लेने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ निर्जन स्थानों में भी ध्यान करने के लिए चली जाती थीं । ध्यान के द्वारा .
१. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाराजिक, ३. २. थेरी गाथा, परमत्थदीपनी टीका, ४०. ३. चुल्लवग्ग, पृ० ३८८.
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