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१०४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ छः अभिज्ञाओं का मैंने साक्षात्कार किया ।' ध्यान के पश्चात् वड्ढमाता कहती है कि होन, मध्यम और उतम जितने भी संस्कार हैं, उनकी अणुमात्र भी तृष्णा उसके चित्त में नहीं है। ध्यान के स्थल
भिक्षुणियों के ध्यान करने के किसी निश्चित स्थल का उल्लेख नहीं मिलता। संघ के नियमों के अनुसार उन्हें अकेले जंगल में रहना या अकेले घुमना निषिद्ध था। कहीं भी जाने पर भिक्षुणियों की संख्या एक से ज्यादा रहती थी, अतः वे इतनी एकाग्रता के साथ ध्यान करने का अवसर नहीं पाती थीं, जितना कि भिक्षुओं को उपलब्ध था । फिर भी, उपर्युक्त निषेधों के बावजूद, भिक्षुणियाँ ध्यान के लिए एकान्त स्थल की तलाश कर लेती थीं। भिक्षुणी दन्तिका ने गृध्रकूट पर्वत के शिखर पर बैठकर ध्यान की साधना की थी तथा उस निर्जन अरण्य में ही अपने चित्त को दमित कर उस पर विजय प्राप्त की थी। भिक्षुणी शैला का उल्लेख प्राप्त होता है, जो एक बार अन्धवन में एकान्तवास कर रही थी। उसे अकेली पाकर मार ने लोभकारी वचनों से धर्मच्युत करने का प्रयास किया। भिक्षुणी चाला' का भोजनोपरान्त अन्धवन में ही ध्यान करने के लिए जाने का उल्लेख है। फिर भी उन्हें ध्यान हेतु एकान्त स्थल सहज सुलभ नहीं थे, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने विहार के कमरों में ही ध्यान करती थीं।
१. "पुब्बेनिवासं जानामि दिब्बचक्खं विसोधितं
चेतो परिच्च आणञ्च सोतधातु विसोधिता इद्धि पि मे सच्छिकता पत्तो मे आसवक्खयो छ मे भिआ सच्छिकता कतं बुद्धस्स सासनं"
-थेरी गाथा, गाथा, ७०-७१. २. ये केचि वड्ढ सखारा होनउम्कट्ठमज्झिमा अणु पि अणुमत्तो पि वनथो मे न विज्जति
-वही, २०७ ३. वही, ४८. ४. वही, परस्मथदीपनी टीका, ५७. ५. वही, ५९.
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