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जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों की दिनचर्या : १०३ प्राप्ति में अब कोई अवरोध उपस्थित नहीं हो सकता था, यहाँ तक कि स्त्रीत्व भी अब कोई बाधा नहीं थी।'
पाली साहित्य में भिक्षुणियों द्वारा ध्यान करने की विधि का भो उल्लेख मिलता है। वे पैर धोकर एकान्त स्थान में बैठती थीं। तत्पश्चात चित्त को एकाग्र कर समाधि में स्थित होती थीं। फिर यह प्रत्यवेक्षण करती थीं कि सभी संस्कार अनित्य हैं, दुःख रूप हैं तथा अनात्म हैं। भिक्षुणियाँ उद्गार प्रकट करती हैं कि उन्होंने रात्रि के प्रथम याम में पूर्वजन्मों को स्मरण किया; मध्यम याम में दिव्य-चक्षुओं को विशोधित किया तथा रात्रि के अन्तिम याम में अंधकारपुंज को नष्ट कर दिया; जब वे आसन से उठी तो तीनों विद्याओं को पूर्ण ज्ञाता थीं। जब चित्त एकाग्र नहीं हो पाता था, तो वे इसके लिए कठोर प्रयत्न करती थीं। भिक्षुणी उत्तमा सप्ताह भर एक ही आसन पर बैठकर ध्यान करती रही, आठवें दिन उसका अज्ञानान्धकार नष्ट हुआ। ३ भिक्षुणी अनुपमा की वासना का सात रात तक ध्यान करने के बाद मूलोच्छेदन हुआ। इसी प्रकार भिक्षुणी श्यामा को आठवीं रात को दिव्यचक्षु प्राप्त हुआ।
सम्यकरूपेण ध्यान करने से वे अलौकिक शक्तियों से युक्त हो जाती थीं । भिक्षुणी सकुला कहती है कि ध्यान के उत्कर्ष में उसे विशुद्ध, विमल दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई। इसी प्रकार भिक्षुणी वड्ढेसी ध्यान के बाद की अवस्था का वर्णन करते हुए कहती है "अपने अतीतजन्म मुझे ज्ञात हैं, तथा विशोधित हुये मेरे चक्षु दिव्य हैं। परचित्तज्ञान मुझे लब्ध है, अलक्ष्य वस्तुओं को भी मैं श्रवण कर सकती हूँ, योग विभूतियाँ भी मैंने प्राप्त की,
१. 'इत्थिभावो नो किं कयिरा चित्तम्हि सुसमाहिते
आणम्हि वत्तमानम्हि सम्मा धम्म विपस्सतो"
-थेरो गाथा, गाथा, ६१. २. वही, ११८-२०, १७२-७४, १७९-८०. ३. वही, ४४. ४. वही, १५६. ५. वही, ३८. ६. वही, १००.
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