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१०२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
ate ग्रन्थों में ध्यान की चार अवस्थाओं का उल्लेख है । प्रथम ध्यान में काम एवं अकुशल धर्मों से विविक्त होकर चित्त वितर्क-विचार से युक्त अनुभव में निमग्न रहता है। दूसरे ध्यान में वितर्क एवं विचार शान्त हो जाते हैं । चित्त अपने अन्दर समाधिजन्य प्रीति सुख का अनुभव करता हैं। तीसरे ध्यान में प्रीति भी छूट जाती है । इस ध्यान में ध्येता ( ध्यायी) को "सुख-विहारी" कहा गया है । चौथे ध्यान में सुख भी छूट जाता है । इस प्रकार सुख और दुःख, सौमनस्य एवं दौर्मनस्य के अस्त हो जाने से स्मृति - परिशुद्धि का चतुर्थ ध्यान में लाभ होता है ।"
बौद्ध ग्रन्थों में भिक्षुणियों के ध्यान करने के अनेकशः उल्लेख प्राप्त होते हैं । भिक्षुणी विमला, जो वैशाली के एक वैश्या की कन्या थी, आनन्दपूर्वक कहती है "वृक्षों के नीचे ध्यानरत हुई मैं अवितर्क ध्यान को प्राप्त कर विहरती हूँ ।" भिक्षुणी उत्तमा ने शून्यताध्यान को प्राप्त किया था । 3 इसी प्रकार भिक्षुणी सुमंगलमाता तथा भिक्षुणी शुभा द्वारा" वृक्ष के नीचे ध्यान करने का उल्लेख है । भृगुकच्छ की भिक्षुणी वड्ढमाता अपने पुत्र को सम्बोधित करते हुए कहती है कि अध्यवसायपूर्वक ध्यान करने के कारण उसके सब चित्त-मल नष्ट हो गये हैं । भिक्षुणी नन्दा को ध्यान करनेवालियों में अग्र कहा गया है ।"
ध्यान के द्वारा ही भिक्षुणियाँ समाधिस्थ होती थीं, जिसमें वे निर्वाणसुख का आनन्द प्राप्त करती थीं। वे ध्यान में इतनी लीन हो जाती थीं कि अपने को बुद्ध से अलग नहीं मानती थीं, अपितु उनकी औरस तथा मुखनिःसृत कन्या मानने लगती थीं । वे अपने को "ओरसा धीता बुद्धस्स "" कहती हैं । ध्यान के द्वारा चित्त इतना निर्मल हो जाता था कि निर्वाण
१. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० १२८.
२. "निसिन्ना रुक्खमूलम्हि अवितक्कस्स लाभिनी " - थेरी गाथा, गाथा, ७५. ३. वही, ४६.
४. वही, २४.
५. वही, ३६२.
६. वही, २०९.
७. "ज्ञायिनं यदिदं नन्दा "
८. थेरी गाथा, गाथा, ४६.
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--- अङ्गुत्तर निकाय, १ / १४.
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