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जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों को दिनचर्या : १०१ दिया था।' इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक भिक्षुणियाँ गूढ़ प्रश्नों को सरलतापूर्वक समझाने में सक्षम थीं। उन्हें यह निर्देश था कि जो भिक्षुणी विज्ञ न हो, वह कम शब्दों में ही धर्मोपदेश करे। २ .
भिक्षुणियाँ अध्यापन भी करती थीं। प्रवत्तिनी को "उपाध्याया" कहा गया है। वह श्रामणेरी को १० शिक्षापदों तथा शिक्षमाणा को द। वर्ष तक षड्धर्मों की सम्यक्रूपेण शिक्षा प्रदान करती थी तथा उनक पालन करवाती थी। प्रवत्तिनी द्वारा प्रतिवर्ष दो या एक शिक्षमाणा बनाना निषिद्ध था ।३ इस नियम का प्रतिपादन सम्भवतः ऐसा इसलिए किया गया होगा कि जिससे वह शिक्षमाणा को भली प्रकार शिक्षा प्रदान कर सके। अमरावती से प्राप्त एक बौद्ध अभिलेख (Amaravati Buddhist Stone Inscription) में विनयधर आर्य पूनर्वसू की अन्तेवासिनी समुद्रिका को “उपाध्यायिनी' कहा गया है अर्थात् वह अध्यापन का कार्य करती थी। परन्तु वह केवल भिक्षुणियों को ही पढ़ाती रही होगी, क्योंकि संघ के नियमानुसार कोई भिक्षुणी किसी भिक्षु को न तो उपदेश दे सकती थी और न पढ़ा सकती थी। .. ध्यान तथा समाधि
बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों की दिनचर्या में ध्यान तथा समाधि का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था । ध्यान के क्षेत्र में ही समाधि का विषय भी अन्तर्भूत हो जाता है । ध्यान की क्रिया से चित्त का परिष्कार अथवा परिशोधन होता है; ध्यान का अर्थ है चिन्तन करना। ध्यान का मुख्य उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति बताया गया है। समाधि शब्द का प्रयोग बौद्ध ग्रन्थों में चित्त की एकाग्रता (चित्तस्स एकग्गता) के लिए किया गया है। बुद्धघोष ने समाधि को 'कुसलचित्त की एकाग्रता" कहा है।
१. थेरी गाथा, गाथा, ६९. २. पातिमोक्ख, भिक्खुनी पाचित्तिय, १०३. ३. वही, ८२, ८३. ४. List of Brahmi Inscription, 1286. ५. "झायत्ति उपनिज्झायतीति झानं".
-समन्तपासादिका, भाग प्रथम, पृ० १४५. .. ६. विशुद्धिमग्ग, पृ० ५७.
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