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९२ : जैन और वौद्ध भिक्षुणी संघ
कुण्डलकेशा' तथा नंदुत्तरा' नामक ऐसी दो बौद्ध भिक्षुणियों का उल्लेख है जिन्होंने बौद्ध भिक्षुणी संघ में प्रवेश के पूर्व जैन भिक्षुणी संघ में दीक्षा ली थीं। इन दोनों भिक्षुणियों ने जैन संघ में तर्कशास्त्र का अध्ययन किया था । वे इतस्ततः भ्रमण करती हुई शास्त्रार्थ किया करती थीं । भद्राकुण्डलशा का सारिपुत्र के साथ तथा नंदुत्तरा का स्थविर महामौद्गल्यायन के साथ शास्त्रार्थ करने का उल्लेख है । इन दोनों भिक्षुणियों ने पराजित होकर बौद्ध भिक्षुणी संघ में प्रवेश लिया था ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन संघ में भिक्षुणियों के अध्ययन का समुचित प्रबन्ध था । यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जैन भिक्षुणियों को ११ अंगों का ही अध्ययन करने की अनुमति प्रदान की गयी थी । उन्हें १२वाँ अंग, जिसे दृष्टिवाद कहा जाता है, को पढ़ने का निषेध किया गया था । इस निषेध को सबल आधार प्रदान करने के लिए यह तर्क दिया गया था कि स्त्रियाँ निम्न प्रकृति की, गर्वीली तथा चंचल इन्द्रियों से युक्त तथा दुर्बल बुद्धि वालो होती हैं । दृष्टिवाद के समान ही महापरिज्ञा, अरुणोपपात आदि ग्रन्थ भी भिक्षुणियों के लिए निषिद्ध थे ।" इन ग्रन्थों को "भूतवाद" कहा गया है। इनमें मन्त्र, भूत-प्रेत, अलौकिक शक्तियों से सम्बन्धित वर्णन हैं ।
अध्ययन की विधि
अन्तकृतदशांग तथा ज्ञाताधर्मकथा से यह प्रतीत होता है कि भिक्षुणी अपनी दीक्षा प्रदान करने वाली प्रवत्तिनी के सान्निध्य में (अन्तिए) ही अध्ययन करती थी । अतः प्रवत्तिनी ही भिक्षुणी को अंग आदि आगमों का अध्ययन कराती थी । जैन ग्रन्थों में अध्ययन की पाँच विधियों का उल्लेख किया गया है । - (१) वाचना (वायणा), (२) पृच्छना (पुच्छणा),
१. थेरी गाथा, परमत्थदीपनी टीका, ४६. २. वही, ४२.
३. " नहि प्रज्ञावत्योऽपि स्त्रियो दृष्टिवादं पठन्ति "
- बृहत्कल्पभाष्य, भाग प्रथम, १४५ ( टीका ) ।
४. " तुच्छा गारवबहुला चलिदिया दुब्बला घिईए इति आइसेसज्झयणा भूयावाओ य नो स्थोणं"
— विशेषावश्यक भाष्य, गाथा संख्या ५५२; बृहत्कल्पभाष्य, भाग प्रथम, १४६. ५. वही, प्रथम भाग, १४६ ( टीका ) ।
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