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________________ ९० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ . दोषों या अतिचारों को बताना पड़ता था। अपराध के अनुसार ही गुरु प्रायश्चित्त देता था, इसे ही आलोचना कहा जाता था।' - आचार्य तथा उपाध्याय के समक्ष की गयी आलोचना सर्वोत्तम मानी जाती थी।२ साम्भोगिक (समान समाचारी वाले) भिक्ष-भिक्षणियों को परस्पर (अन्नमन्नस्स) अर्थात् भिक्षु को भिक्षुणी के समक्ष तथा भिक्षुणी को भिक्षु के समक्ष आलोचना करना निषिद्ध था। आलोचना सुनने योग्य साधु-साध्वी के समक्ष ही आलोचना की जा सकती थी, अन्यथा नहीं।' इससे यह स्पष्ट होता है कि भिक्षुणी अपनी प्रत्तिनी अथवा किसी योग्य भिक्षुणी के समक्ष ही आलोचना कर सकती थी। आलोचना सुनने योग्य व्यक्ति में १० गुणों का होना आवश्यक माना ( गया था-वह आचारवान् हो, अवधारणावान् (आलोचना करने वाले के समस्त अतिचारों को जानने वाला) हो, व्यवहारवान् हो, अप्रवीडक (आलोचना करने वाले को लाज तथा संकोच से मुक्त करने में समर्थ) हो, प्रकारी (विशुद्धि कराने वाला) हो, अपरिश्रावी (आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने न प्रकट करने वाला) हो, निर्यापक (कठोर प्रायश्चित्त को भी निभाने में सहयोग देने वाला) हो, अपायदर्शी (प्रायश्चित्तभंग से उत्पन्न दोषों को बताने वाला) हो, प्रियधर्मा हो, दृढ़धर्मा हो। - ऐसे गुरु के समक्ष आलोचना करना निषिद्ध था, जो उपदेश दे रहा हो या अध्ययन में रत हो, ध्यान से न सुनता हो, जो दुर्व्यवहारी हो, प्रमत्त (असावधान) हो, जो आहार कर रहा हो आदि । ध्यान चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना ध्यान कहा गया है। भिक्षुभिक्षुणियों को दिन और रात्रि-प्रत्येक के दूसरे प्रहर में ध्यान करने का १. "आलोयण" त्ति आलोचनमालोचना अपराधमर्यादया लोचनं--दर्शनमाचार्यादेरालोचनेत्यभिधीयते" __-ओघनियुक्ति, पृ० २५. २. व्यवहार सूत्र, १/३३. ३. वही, ५/१९. ४. स्थानांग, १०/७३३. ५. ओपनियुक्ति, ५१४-१९. ६. चित्तसेगग्गया हवइ झाणं"-ध्यानशतक, २. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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