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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मल्लवादि क्षमाश्रमण के 'द्वादशारनयचक्र' पर 'न्यायागमनानुसारिणी' नामक वृत्ति के लेखक सिंहसूरि गणि क्षमाश्रमण जिनका समय ई०सन् सातवीं शताब्दी माना जाता है, ने अपनी वृत्ति में सन्मतितर्क की १३ गाथाओं का उद्धरण भिन्न-भिन्न स्थलों पर दिया है। ११० यदि न्यायावतार सिद्धसेन की कृति होती तो नय की व्याख्या करने वाले द्वादशारनयचक्र की अमुक वृत्ति में रचनाकार ने न्यायावतार की कारिकाओं को भी अवश्य ही उद्धृत किया होता, परन्तु ऐसा नहीं है जो साफ़ तौर पर ज़ाहिर करता है कि सातवीं शताब्दी तक न्यायावतार की रचना हो ही नहीं पाई थी। अत: न्यायावतार सातवीं शताब्दी के बाद किसी आचार्य की कृति होनी चाहिए।
इसी प्रकार जिनभद्रगणि (५८८-५९४ ई०) ने अपने विशेषावाश्यकभाष्य में तथा गन्धहस्ती सिद्धसेन ने अपने तत्त्वार्थाधिगम की वृत्ति में सन्मति से गाथाएँ ली हैं लेकिन इनकी रचनाओं में न्यायावतार से कुछ भी उद्धृत नहीं है जो उपर्युक्त निष्कर्ष की ही पुष्टि करता है।
- इसके अतिरिक्त यदि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति होती तो न्यायावतार पर वृत्ति लिखने वाले सिद्धर्षि ने अपनी रचना में कहीं न कहीं मूलकार का उल्लेख अवश्य किया होता। जैसा कि प्रो० एम० ए० ढाकी ने१११ अपने लेख "The Date and authorship of Nyayavatara" में स्पष्ट किया है सिद्धर्षि के अतिरिक्त न्यायावतार पर वृत्ति लिखने वाले अन्य वृत्तिकार जिनेश्वर सूरि एवं शान्ति सूरि में से जिनेश्वर सूरि अपने वृत्ति के प्रारम्भ में न्यायावतार को आद्य सूरि रचित बताते हैं एवं अन्त में पूर्वाचार्य विरचित। स्पष्ट है कि आचार्य को रचनाकार के सम्बन्ध में पता नहीं था। दूसरे वार्तिककार शांति सरि रचनाकार के सन्दर्भ में 'सिद्धसेनार्क सूत्रितम्' एवं अन्यत्र उसी ग्रन्थ में 'सिद्धसेनस्य' या 'सूत्रकर्तः' लिखते हैं। यद्यपि शांति सरि ने यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया है कि ये सिद्धसेन 'दिवाकर' पदवी वाले सिद्धसेन ही हैं। ___अब प्रश्न उठता है; यदि यह सिद्धसेन की कृति नहीं है तो फिर किसकी कृति है? न्यायावतार के विषय में अनेक विद्वानों द्वारा दिए गए मन्तव्यों, उसकी रचनाशैली एवं अनेक आचार्यों के पौर्वापर्व की समीक्षा करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि न्यायावतार सिद्धव्याख्याता आचार्य सिद्धर्षि (विक्रम की १०वीं शताब्दी) की कृति है जो 'उपमितिभवप्रपञ्च' (वि०सं०९६२) चन्द्रकेवली चरित्र के कर्ता एवं धर्मदासकृत उपदेशमाला के विवरणकार हैं, एवं जिन्होंने न्यायावतार वृत्ति १२ में सिद्धसेन द्वारा 'कल्पनापोढंम्रान्तम्' का 'ग्राहक' पद के द्वारा किए गये निरसन को बौद्धों (धर्मकीर्ति) के उक्त लक्षण का निरसन होना बतलाया है।
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