________________
सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ
५३
पद का प्रयोग किया है और उसी को आधार बनाकर सिद्धसेन दिवाकर और धर्मकीर्ति ने अपने-अपने अभीष्ट मतों का प्रतिपादन किया हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
अभिधर्म समुच्चय में असंग ने प्रमाण सन्दर्भ के अतिरिक्त ज्ञेय क्या है? इस सन्दर्भ में भी 'अभ्रान्त' पद का अनेकशः प्रयोग किया है, यथा
ज्ञेय कतमत् । संक्षेपेण षड्विधम् । भ्रान्तिः भ्रान्ताश्रयः अभ्रान्ताश्रयः भ्रान्त्यभ्रान्ति: अभ्रान्ति: निष्पंदश्च । – अभिधर्मसमुच्चय, पृष्ठ १०१।
अत: यह मानने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता कि 'अभ्रान्त' पद की योजना धर्मकीर्ति की अपनी नयी योजना है।
किन्तु इतना मान लेने से ही सिद्धसेन दिवाकर को न्यायावतार का कर्त्ता मान लेना पर्याप्त नहीं होगा। क्योंकि न्यायावतार में आने वाले अनुमान प्रमाण की परिभाषा पर दिगम्बर जैन न्यायविद् पात्रकेसरी अपर नाम पात्रस्वामी (सातवीं शती का उत्तरार्द्ध), जो समन्तभद्र के 'देवागम' से प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हए थे, का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। अवधेय है कि हेतु लक्षण के सम्बन्ध में न्यायावतार की २२वीं कारिका 'अन्यथानुपपनत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्' का पात्रकेसरी के 'त्रिलक्षणकदर्थन' की कारिका से अंशत: शाब्दिक साम्य है, और जिसे शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह में उद्धृत किया है।
इसी प्रकार न्यायावतार की आठवीं कारिका ‘दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्' में आगम प्रमाण का लक्षण आ जाने पर भी नवीं कारिका में समन्तभद्र सम्मत (रत्नकरण्ड श्रावकाचार) 'आप्तोपज्ञमनुलवयम्दृष्टेष्टविरोधकम्' शास्त्र का लक्षण उपर्युक्त मत का ही समर्थन करता है। न्यायावतार की अन्य कारिकाओं में समन्तभद्र की अन्य कारिकाओं का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। तुलना करें -
उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषस्याऽऽदान-हान-धीः। पूर्वा (वे) वाऽज्ञान-नाशो वा सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे।।१०२।। (देवागम) प्रमाणस्यफलं साक्षादज्ञान विनिवर्तनम् । केवलस्य सुखोपेक्षो शेषस्याऽऽदान-हान धीः ।। - न्यायावतार, २८।
अत: न्यायावतार धर्मकीर्ति एवं पात्र स्वामी के बाद की रचना होने से सन्मतिकार सिद्धसेन की कृति नहीं हो सकती जिनका समय आमतौर पर विक्रम की पांचवी शताब्दी निश्चित किया जा चुका है।
इसके अतिरिक्त कुछ और भी बिन्दु हैं जो न्यायावतार को सिद्धसेनकृत मानने में बाधा उत्पन्न करते हैं
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org