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सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ न्यायावतार पर मिलने वाली सिद्धर्षि की यह टीका मेरे विचार से सिद्धर्षि की ही स्वोपज्ञवृत्ति होनी चाहिए, जिसे भूल से सिद्धसेनकृत न्यायावतार पर उनकी वृत्ति समझी जाती रही है। सिद्धसेन एवं सिद्धर्षि के नाम की समरूपता (अर्द्धाश) के कारण सम्भव है बाद के विद्वानों ने न्यायावतार को सिद्धसेन की रचनाओं में परिगणित कर लिया हो।
जैसा कि मैं उल्लेख कर चुका हूँ यदि आचार्य सिद्धर्षि, सिद्धसेनकृत न्यायावतार पर वृत्ति लिखे होते तो ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रचलन के अनुसार उसके मूलकर्ता सिद्धसेन का नाम अवश्य दिए होते। परन्तु सिद्धर्षि की न्यायावतार वृत्ति में ऐसा कोई सूचन नहीं मिलता। रही बात सिद्धर्षि की अपने ही ग्रन्थ पर वृत्ति लिखने की, तो यह परम्परा रही है एवं अपने ही ग्रन्थ पर वृत्ति लिखते समय कर्ता के रूप में अपना नाम दिया जाय, यह आवश्यक नहीं है। अत: अमुक वृत्ति आचार्य सिद्धर्षि की ही स्वोपज्ञवृत्ति है, ऐसा मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
न्यायावतार को सिद्धर्षिकृत मान लेने पर कुछ बाधाएँ सामने आती हैं जिनका परिहार हम उनके उल्लेख सहित करना चाहेंगे
यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की रचना मान ली जाय तो छठी शताब्दी के समन्तभद्रकृत रचनाओं में मिलने वाले न्यायावतार के श्लोकों की उपपत्ति कैसे हो पायेगी? - जहाँ तक रत्नकरण्डश्रावकाचार की बात है, प्रो० हीरालाल जैन११३ ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि यह समन्तभद्र की रचना न होकर योगीन्द्रदेव (१३वीं शती)११४ की रचना है। इसलिए यदि १३वीं शताब्दी के योगीन्द्र देव की रचना में १०वीं शताब्दी के सिद्धर्षिकृत न्यायावतार का कोई श्लोक मिलता है तो इसमें आश्चर्य या आपत्ति की कोई बात नहीं है। रही बात आप्तमीमांसा में पाये जाने वाली कारिका के साथ न्यायावतार के उक्त श्लोक के साम्य की तो सम्भव है समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की उक्त कारिका को सिद्धर्षि ने अपने न्यायावतार में कुछ परिवर्तनों के साथ ले लिया हो। अत: इसमें भी कोई बाधा नहीं है।
(२) न्यायावतार का दूसरा १५ एवं चौथा११६ पूरा का पूरा श्लोक याकिनीसूनु हरिभद्र (ई०सन् ७४०-७८५) के क्रमश: 'अष्टकप्रकरण ११७ एवं
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