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________________ सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ ३७ क्योंकि द्वितीयकाण्ड में जीव के स्वरूप की चर्चा न होकर आदि से अन्त तक मुख्य चर्चा ज्ञान की ही है। इसलिए इस काण्ड का नाम ज्ञानकाण्ड या उपयोगकाण्ड समुचित होगा। पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार ने अपनी पुस्तक 'पुरातन-जैनवाक्यसूची' में पण्डित सुखलाल जी के विचारों से मतवैभिन्न रखते हुए जीवकाण्ड का, जीवकाण्ड ही उचित नाम दिया है। हम यहाँ विषय विस्तार के भय से काण्डों के नामकरण की सार्थकता पर बल न देकर ग्रन्थ के तीन भागों को नयकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं ज्ञेयकाण्ड के रूप में बाँटकर ग्रन्थ के केन्द्रीय विषयवस्तु की संक्षिप्त चर्चा करेंगे। सन्मति का केन्द्रीय विषय 'अनेकान्त' है। अनेकान्त की चर्चा में सिद्धसेन ने अनेकान्त का स्वरूप, दर्शानान्तर में उपलब्ध अनेकवाद के साथ उसकी तुलना, अनेकान्त से फलित होने वाले वाद, अनेकान्त के आधार पर की गई ज्ञान-मीमांसा, अनेकान्त एवं एकान्त के उदाहरण उसकी पूर्णता और विफलता आदि मुख्य बिन्दुओं पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। प्रथमकाण्ड में ग्रन्थकार ने अनेकान्तवाद से फलित होने वाले नयवाद एवं सप्तभंगी की मुख्यरूप से चर्चा की है। नयवाद में अनेकान्तदृष्टि की आधारभूत दो दृष्टियों-सामान्यग्राही अर्थात् द्रव्यास्तिक एवं विशेषग्राही अर्थात् पर्यायास्तिक का पृथक्करण करके उनमें नयों का बंटवारा किया है। १७ सिद्धसेन ने आगमप्रसिद्ध सात नयों को छ: नयों में संकलित किया एवं प्राचीन परम्परा के अनुसार द्रव्यास्तिक दृष्टि की जो सीमा ऋजुसूत्र नय तक थी उसे व्यवहारनय तक ही सीमित किया। अतः सन्मतिसूत्र के अनुसार नैगम कोई स्वतन्त्र नय नहीं है। सिद्धसेन ने संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ एवं एवंभूत ये छः ही स्वतन्त्र नय माने हैं, उनके अनुसार द्रव्यास्तिक नय की मर्यादा व्यवहार नय तक है तथा शेष नय पर्यायास्तिक की सीमा में आते हैं। सप्तभंगी की चर्चा करते हुए सिद्धसेन ने भंगों की संयोजना विविध अपेक्षाओं के आधार पर की है। कुछ नयों में चार निक्षपों के विभाजन के प्रसंग में भर्तृहरि सम्मत शब्द ब्रह्मवाद, बौद्धों के क्षणिकवाद आदि की भी चर्चा की है। इसी क्रम में उन्होंने जैनेतर अन्य सम्प्रदायों सांख्य, वैशेषिक और बौद्ध (सौत्रान्तिक, योगाचार, वैभाषिक एवं माध्यमिक)१८ आदि सम्मत सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद, तत्त्वाद्वैत, द्रव्याद्वैत, प्रधानाद्वैत, शब्दाद्वैत और ब्रह्माद्वैत आदि वादों का निरसन भी किया है।१९ बत्तीसवीं गाथा की व्याख्या में व्यञ्जक पयार्य की चर्चा के प्रसङ्ग में शब्द तथा अर्थ एवं वाच्य-वाचक सम्बन्धों की विवेचना भी की है। इस सन्दर्भ में वैयाकरणों के स्फोटवाद वैशेषिकों के अनित्यवर्णवाचकत्ववाद, मीमांसकों के नित्यवर्ण वाचकत्ववाद एवं सम्बन्धनित्यत्ववाद को चर्चा करते हुए अनेकान्तदृष्टि से सबका जैनदर्शन सम्मत स्वरूप दिखलाया गया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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