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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भाषा एवं रचनाशैली
सन्मति की भाषा प्राकृत है। वह शौरसेनी, मागधी या पैशाची न होकर महाराष्ट्री प्राकृत है। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री१२ का मत है कि सन्मति की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत है क्योंकि इसमें सर्वत्र 'य' श्रुति का पालन हुआ है। किन्तु दक्षिण भारत में रचित
और सुरक्षित शौरसेनी प्राकृत की 'द' श्रुति का प्रयोग सन्मति में नहीं है। अत: ऐसा लगता है कि इस ग्रन्थ की रचना उत्तर या पश्चिम भारत में प्रचलित महाराष्ट्री प्राकृत में हुई होगी।
सन्मति सूत्र के अतिरिक्त सिद्धसेन दिवाकर की शेष अन्य रचनाएँ संस्कृत में हैं, यही एक मात्र रचना प्राकृत में है। इसके क्या कारण हो सकते हैं इस सन्दर्भ में पण्डित सखलाल जी एवं पण्डित बेचर दास जी ने सन्मति-प्रकरण की प्रस्तावना३ में यथेष्ट प्रकाश डाला है एवं बतलाया है कि 'जैन साहित्य में वाचक उमास्वाति की कृतियाँ ही संस्कृत में रचित प्रथम जैन कृतियाँ हैं, उनके पहले संस्कृत में किसी जैन आचार्य ने ग्रन्थ लिखा हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। उनके द्वारा जैन साहित्य में संस्कृत भाषा का द्वार खुलने पर प्राचीन प्रथा के अनुसार प्राकृत ग्रन्थ रचना के साथ-साथ संस्कृत में भी ग्रन्थ रचना होने लगी। सिद्धसेन दिवाकर जन्म से ही संस्कृत भाषा तथा दार्शनिक विषयों के अभ्यासी थे। जैन दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् उन्होंने प्राकृत का भी अभ्यास तो कर लिया परन्तु विशिष्ट संस्कार संस्कृत के ही थे। इस कारण उनकी संस्कृत कृतियाँ अधिक मिलती हैं।' सन्मति की रचनाशैली पद्यमय है एवं सभी पद्य आर्याछन्द में हैं। टीका की रचना पद्य में न होकर गद्य में है, कहीं-कहीं जो पद्य मिलते हैं, वे टीकाकार के नहीं हैं अपितु मात्र उद्धरण के रूप में लिए गये हैं। ग्रन्थ परिमाणः
इसमें कुल १६६ गाथाएँ हैं। १६७ गाथाओं में होने के भी उल्लेख मिलते हैं। किन्तु एक गाथा'४ जो अन्तिम गाथा के पहले आयी है, उस पर कोई टीका न होने से वह प्रक्षिप्त है, यह स्पष्ट है। यह ग्रन्थ तीन विभागों में तीन काण्डों के रूप में मिलता है-- प्रथमकाण्ड, द्वितीयकाण्ड एवं तृतीयकाण्ड। इन काण्डों का विषयसूचक कोई विशेषण नहीं मिलता। मात्र मूल पद्यों की एक लिखित एवं मुद्रित प्रति में प्रथम काण्ड का 'नयकंड' (नयकंडं सम्मत्तं), द्वितीय काण्ड का 'जीवकंडयं' के नाम से निर्देश किया गया है, परन्तु तीसरे विभाग के अन्त में न तो काण्ड का कोई नामकरण किया गया है और न काण्ड शब्द का ही प्रयोग है। पण्डित सुखलाल जी और पण्डित बेचरदस जी की राय में यह नामकरण ठीक नहीं है।१५
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