SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ऐसा लगता है कि आचार्य ने सन्मति के प्रस्तुत काण्ड की रचना आगम ग्रन्थों के आधार पर एवं आगमिक परिभाषाओं का आवलम्बन लेकर की है, यह प्रस्तुत काण्ड के भंगों की व्याख्या से परिलक्षित होता है। भंगों का वर्णन करते समय उन्होंने भगवतीसूत्र गत आगमिक क्रम एवं परिभाषा का उपयोग किया है, जैसा कि उमास्वाति ने 'अर्पितानर्पितसिद्धेः'२० सूत्र के भाष्य में किया है। सिद्धसेन ने नयकाण्ड के अन्त में 'एगे आया एगे दण्डे य होइ किरिया य'२१ सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वमत का विधान स्थानांगसूत्र२२ में आये पाठ का आलम्बन लेकर किया है। द्वितीय ज्ञानकाण्ड में अनेकान्तस्वरूप का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने अनेकान्त के अंगभूत-दर्शन एवं ज्ञान की मीमांसा की है। इस मीमांसा में उन्होंने अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय देते हुए अपने उपयोगाऽभेदवाद' की स्थापना की है। केवलदर्शन और केवलज्ञान की उत्पत्ति क्रम से होती है, ऐसा मत पहले से आगम-परम्परा में प्रसिद्ध था, इसके अतिरिक्त इन दोनों की उत्पत्ति युगपद् होती है, ऐसा भी मत प्रचलित था। इन दोनों मतों के सामने सिद्धसेन ने अपना अभेदवाद रखा। उन्होंने क्रमवादिता एवं युगपद्वादिता में दोष२३ दिखाते हुए अभेदवाद या एकोपयोगवाद की स्थापना की है। इस क्रम में ज्ञानावरण और दर्शनावरण का युगपद क्षय मानते हुए यह भी बतलाया है कि दो उपयोग एक समय कहीं नहीं होते और केवली में वे क्रमश: भी नहीं होते। ज्ञान और दर्शन उपयोगों का भेद मन:पर्याय ज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मावस्था तक ही चलता है, केवल ज्ञान हो जाने पर कोई भेद नहीं रहता। चूंकि केवली नियम से अस्पृष्ट पदार्थों को जानता और देखता है इसलिए भेद के बिना ही अभेदरूप से ज्ञान और दर्शन सिद्ध होते हैं।२४ इस प्रकार सिद्धसेन केवली के ज्ञान दर्शनोपयोग विषय में अभेदवाद के पुरस्कर्ता हैं। टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानबिन्दु के कर्ता उपाध्याय यशोविजय ने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। ज्ञानबिन्दु२५ में उनके इस वाद का 'श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमते' के रूप में भी उल्लेख मिलता है। __अनेकान्त दृष्टि से ज्ञेय तत्त्व कैसा होना चाहिए इसकी चर्चा मुख्यतया तीसरे 'ज्ञेय काण्ड' में की गई है। साथ ही अनेकान्तवाद का उपपादन करने वाले दूसरे भी अनेक विषयों को इसमें समाहित किया गया है। सिद्धसेन ने भी सामान्य और विशेषवाद, अस्तित्व और नास्तित्ववाद, आत्मस्वरूपवाद, द्रव्यगुण-भेदाभेदवाद, काल आदि पाँच कारणवाद, कार्यकारणभेदाभेदवाद एवं आत्मा के अस्तित्व व नास्तित्व प्रवण छ: वादों का विस्तृत तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy