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________________ सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय रखना चाहिए कि यदि सिद्धसेन पांचवीं शताब्दी के विद्वान् हैं तो उनके काल तक श्वेताम्बर व दिगम्बर जैसे स्पष्ट संघभेद आस्तित्व में नहीं आ पाये थे। श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ, निर्ग्रन्थ तथा यापनीय संघ आदि के सर्वप्रथम उल्लेख हमें देवगिरि के शिलालेखों में मिलते हैं। ये शिलालेख मृगेशवर्मा के हैं। इनका काल ईसा की पांचवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की छठी शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना गया है। यदि सिद्धसेन को हम पांचवीं शताब्दी का मानते हैं तो स्पष्ट रूप से उस समय श्वेताम्बर दिगम्बर जैसे नामकरण तो नहीं हो पाये थे। डॉ० सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय'४५ में प्रतिपादित किया है कि इन दोनों संघों के स्पष्ट नामकरण साहित्यिक और अभिलेखीय किसी भी आधार पर पांचवीं शताब्दी के पूर्व में नहीं आ पाये थे। यद्यपि तीसरी शताब्दी से वस्त्र-पात्र के विवाद को लेकर मान्यताभेद प्रारम्भ हो गये थे किन्तु इन भिन्न-भिन्न मान्यताभेद रखने वाले आचार्यों में बहुत अधिक कटुता रही हो ऐसा कोई भी निर्देश हमें नहीं मिलता है। देवगिरि और हल्सी के पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के अभिलेखों से भी यही सूचित होता है कि उनमें परस्पर समादरभाव और सहयोग था तभी श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ को 'अर्हत्प्रोक्त- सद्धर्मकरणपरस्य' ऐसा विशेषण तथा यापनीयों को तपस्वी जैसे विशेषण दिये गये हैं। उस समय तक दोनों सम्प्रदायों के मन्दिर और मूर्तियाँ भी एक ही थे। वस्तुत: सिद्धसेन के काल तक कुछ सैद्धान्तिक मान्यताभेद तो अस्तित्व में आ गये थे, किन्तु साम्प्रदायिक आधारों पर मान्यताओं का स्थिरीकरण नहीं हुआ था, इन मतभेदों के संकेत तो हमें श्वेताम्बर आगमों तथा कषायपाहुड, षट्खण्डागम आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों में मिल जाता हैं, 'यहाँ तक कि एक ही वर्ग के आचार्यों में भी परस्पर मतभेद है। अत: सिद्धसेन का काल श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नामकरण के अस्तित्व में आने के पूर्व है। यह स्पष्ट है कि वे श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीयों के पूर्व युग के आचार्य हैं, इसलिये यापनीय परम्परा और उससे निकले हए ‘पन्नाटसंघ' आदि एवं षट्खण्डागम की धवलाटीका में उनका आदरपूर्वक उल्लेख हुआ है। अतः द्वात्रिंशिकाओं के आधार पर सिद्धसेन के समय को पांचवीं शताब्दी के बाद ले जाने का पण्डित मुख्तार जी का मत समीचीन प्रतीत नहीं होता। सिद्धसेन दिवाकर को विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी मानने में दो मुख्य विरोधी मत हैं : एक है प्रो० हर्मन् जैकोबी का तथा दूसरा प्रो० पी० एल०वैद्य का। प्रो०हर्मन जैकोबी एवं उनके मत के उपजीवी प्रो०पी० एल०वैद्य की मान्यता है कि सिद्धसेन दिवाकर 'न्यायावतार' ४६ में धर्मकीर्ति के 'अभ्रान्त' शब्द का उपयोग करके एवं 'अनुमान भी प्रत्यक्ष की भांति अभ्रान्त है'४८ ऐसा कहकर 'अभ्रान्त' पद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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