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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
का प्रथम प्रयोग करने वाले धर्मकीर्ति के मत का खण्डन करते हैं, अत: सिद्धसेन, धर्मकीर्ति के बाद यानी ई० सन् ६३५-५० के पश्चात् आते हैं।४९
प्रोजैकोबी एवं प्रो०वैद्य के इस प्रमाण का खण्डन करते हुए पण्डित सुखलालजी ने अपनी पुस्तक 'सन्मतिप्रकरण' की भूमिका में कहा है कि 'प्रमाण की व्याख्या में ‘अभ्रांत' अथवा उससे मिलता जुलता शब्द भारतीय दर्शनों में धर्मकीर्ति से पहले अज्ञात था, ऐसा मानना वस्तुत: बहुत बड़ी भूल है क्योंकि गौतम के न्यायसूत्र तथा उसपर हुए वात्स्यायनभाष्य में 'अभ्रान्त' अर्थ वाले ‘अव्यभिचारी' शब्द और उससे युक्त प्रत्यक्षप्रमाण लक्षण प्रसिद्ध है, (न्यायसूत्र, १/१/४)। वैसे भी अनुमान शब्द और उसका विचार दिङ्नाग पूर्व के बौद्ध न्याय में भी मिलता है । अत: यह कहना कि सिद्धसेन धर्मकीर्ति के बाद के हैं, उचित प्रतीत नहीं होता।
सिद्धसेन के उपयोगाभेदवाद की चर्चा के प्रसंग में पं० जुगल किशोर मुख्तार ने पण्डित सुखलाल जी संघवी के इस मत का कि पहले क्रमवाद था, युगपद्वाद सर्वप्रथम उमास्वाति द्वारा जैनवाङ्मय में प्रवृष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभेदवाद का प्रवेश मुख्यतः सिद्धसेन के द्वारा हुआ,५१ का खण्डन करते हुए ‘सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो णत्थि उवओगा', भद्रबाहुकृत आवश्यकनियुक्ति की इस गाथा को युगपद्वाद के प्रतिवादी के रूप में उद्धृत कर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि पण्डित सुखलाल५२ जी का मत नियुक्तिकार भद्रबाहु को द्वितीय शताब्दी का मानने के कारण खण्डित हो जाता है। क्योंकि द्वितीय भद्रबाहु तो पांचवीं शती के हैं दूसरे, उनकी यह भी मान्यता है कि कुन्दुकुन्दाचार्य के नियमसार५३ एवं पुष्पदन्तभूतबलि के षट्खण्डागम५४ में भी युगपद्वाद का स्पष्ट विधान पाया जाता है, और ये दोनों आचार्य उमास्वाति के पूर्ववर्ती हैं।
पं० मुख्तार जी का यह मत उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि जहाँ तक नियुक्तिकार भद्रबाहु का प्रश्न है, आदरणीय मुख्तार जी का उन्हें विक्रम की छठी शताब्दी का मानना,५५ जैन विद्यालय रजत जयंती महोत्सव ग्रन्थ में मुद्रित मुनि श्री पुण्यविजयजी के 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार'५६ नामक गुजराती लेख पर आधारित है। परन्तु मुनि पुण्यविजय जी के उसी लेख के इतर अंश पर पण्डित मुख्तार जी का ध्यान नहीं गया जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि विक्रमीय पांचवीं शती में गोविन्द भिक्षु नामक दूसरे एक नियुक्तिकार हुए हैं। स्वयं पुण्यविजय जी ने अपने मत का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए बृहत्कल्प के छठे भाग की प्रस्तावना में नियुक्तियों की परम्परा छठी शताब्दी पहले से चली आ रही थी, ऐसा स्पष्ट विधान
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