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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पंडित मुख्तार ने युगपदवाद की चर्चा को उमास्वाति के पूर्व स्थापित करने एवं भूतबलि को उमास्वाति से पूर्व सिद्ध करने का असफल प्रयास किया है। भूतबलि, जिनका समय दिगम्बर परम्परा ई०सन् की प्रथम शताब्दी का अन्तिम चरण निर्धारित करती है, उन्हें उमास्वाति से पूर्व सिद्ध करने में सबसे बड़ा बाधक प्रमाण षट्खण्डागम में प्राप्त गुणस्थानों की स्पष्ट और विकसित चर्चा हैं। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम एवं श्वेताम्बर परम्परा में समवायांग में गुणस्थानों का स्पष्ट नाम निर्देश नहीं है फिर भी क्रमश: जीवसमास एवं जीवस्थान के नाम से इनकी चर्चा की गई है। यदि षखण्डागम को उमास्वाति के पूर्व की रचना मान लें तो यह आश्चर्य का विषय लगता है कि आचार्य उमास्वाति ने जहाँ अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैनधर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है वहाँ उन्होंने १४ गुणस्थानों का कहीं भी निर्देश नहीं किया। यदि षट्खण्डागम उनसे पूर्ववर्ती होता तो निश्चित रूप से उन्होंने उसमें पायी जाने वाली गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा को अपने तत्त्वार्थसूत्र में समाविष्ट किया होता या कम से कम उल्लेख तो किया ही होता, परन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुतः षट्खण्डागम लगभग छठी शताब्दी की रचना है। क्योंकि इन्द्रनन्दी के अनुसार कुन्दकुन्दाचार्य ने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नाम की एक टीका लिखी है,४२ और इस आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि षट्खण्डागम के सम्पादक डॉ०हीरालाल जैन ने इसकी समय सीमा ई० सन् ८७ जो निश्चित की है, वह अयुक्तियुक्त है। प्रो० एम० ए० ढाकी ने षट्खण्डागम की समय सीमा पाँचवीं शताब्दी का अन्तिम चरण या छठी शताब्दी का प्रारम्भ निर्धारित किया है। अतः षट्खण्डागम और नियमसार दोनों के ही उमास्वाति के पूर्ववर्ती सिद्ध न हो पाने से पण्डित मुख्तार जी का उमास्वाति से पूर्व युगपद्वाद की चर्चा होने का मत निराधार प्रतीत होता है।
द्वात्रिंशिकाओं की रचना और उनके समय के आधार पर भी मुख्तार जी ने सिद्धसेन के समय को पीछे ले जाने का प्रयास किया है। वस्तुत: आदरणीय जुगलकिशोर जी मुख्तार और डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ने यह कल्पना कर ली है कि द्वात्रिंशिकाओं में कुछ के रचयिता श्वेताम्बर सिद्धसेन एवं कुछ के रचयिता दिगम्बर सिद्धसेन हैं। पण्डित जुगलकिशोर जी का यह विचार पूर्वाग्रह से परे नहीं है क्योंकि उन्होंने केवल वे ही द्वात्रिंशिकाएँ सिद्धसेन की मानी जो उनकी परम्परा के विरुद्ध नहीं जाती थीं, शेष द्वात्रिंशिकाओं एवं सन्मतिसत्र के कर्ता को अन्य सिद्धसेन बताकर वे अपने मन्तव्य की संतुष्टि करना चाहते हैं। सम्भवत: वे यह भूल गए कि जिन सम्प्रदायों के चौखटों में हम उन्हें फिट करना चाहते हैं वे चोखटे सिद्धसेन के समय तक तैयार ही नहीं हो पाये थे। इस सम्बन्ध में हमें यह स्मरण
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