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सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय
अंक७) में प्रकट किया है जिसमें कहा गया है कि मल्लवादी ने अपने नयचक्र में पद-पद पर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थ का उपयोग ही नहीं किया बल्कि उसके कर्ता भर्तहरि का नामोल्लेख और उनके मत का खण्डन भी किया है। भर्तहरि का समय इतिहास में चीनी यात्री इत्सिंग के यात्राविवरणादि के अनुसार सन् ६०० से ६५० (वि०सं०६५७ से ७०७) तक माना जाता है क्योंकि इत्सिंग ने जब ६९१ में अपनी यात्रा वृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरि का देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे और वह उस समय का प्रसिद्ध वैयाकरण था। ऐसी हालत में मल्लवादी, जिनभद्र से पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते। उक्त समयादिक की दृष्टि से वे विक्रम की प्राय: आठवीं-नवमी शताब्दी के विद्वान् हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दु की धर्मोत्तर टीका पर टिप्पण लिखने वाले मल्लवादी के साथ एक भी हो सकता है।२६ अत: पण्डित सुखलाल जी का मत सही नहीं ठहरता। ___ आइए इन प्रमाणों की परीक्षा करें- केवली ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग के सम्बन्ध में तीन प्रकार की अवधारणाएँ प्रचलित हैं—क्रमवाद, युगपद्वाद एवं अभेदवाद। इस सन्दर्भ में यह भी स्पष्ट है कि क्रमवाद की अवधारणा आगमिक है, जबकि युगपद्वाद की अवधारणा मुख्य रूप से दिगम्बर परम्परा में प्रचलित रही। इन दोनों अवधारणाओं के मध्य तीसरी अवधारणा अभेदवाद की है। यह सुनिश्चित है कि इस अभेदवाद के प्रणेता सिद्धसेन दिवाकर हैं। क्रमवाद की अवधारणा आगमिक होते हुए भी उसका सुस्पष्ट प्रतिपादन हमें सर्वप्रथम देविन्द्रत्यवो२७ नामक प्रकीर्णक एवं 'आवश्यकनियुक्ति' २८ में मिलता है। यह अवधारणा इन दोनों ग्रंथों में जिस रूप में प्रतिपादित की गई है उससे ऐसा लगता है कि यह उस मान्यता का खण्डन करती है जो एक समय में दोनों उपयोगों का युगपद रूप में मान रही थी। अब प्रश्न यह है कि इन दोनों- क्रमवाद और युगपदवाद की मान्यताओं के प्राचीनतम समय क्या हैं? __ जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं कि क्रमवाद की गाथा हमें 'देवेन्द्रस्तव (देविन्दत्थवो) व आवश्यकनियुक्ति' में मिलती हैं, यह देवेन्द्रस्तव में जिस प्रसंग में मिलती है वह सिद्धों का प्रसंग है। सिद्धों के इस प्रंसग से सम्बन्धित गाथाएँ हमें 'प्रज्ञापना' और 'तित्थोगालिय' २९ नामक प्रकीर्णक में भी मिलती हैं। किन्तु उनमें क्रमवाद का मण्डन या युगपद्वाद का खण्डन नहीं हैं। तित्थोगालिय प्रकीर्णक निश्चय ही देविन्दत्थवो से परवर्ती है क्योंकि वह वीर निर्वाण १००० वर्ष तक की घटनाओं का उल्लेख करता हैं, किन्तु प्रज्ञापना प्राचीन ग्रन्थ है। प्रज्ञापना में इस प्रसंग की अन्य सभी गाथाएँ उपलब्ध हैं किन्तु क्रमवाद सम्बन्धी यह गाथा उसमें उपलब्ध नहीं है अतः इतना निश्चित है कि प्रज्ञापना के पश्चात् और आवश्यक
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