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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के २२वें पद्य में 'विद्रते' इस प्रकार के रेफ आगम वाला पद पाया जाता है अत: देवनन्दी का यह उल्लेख बिल्कुल सही है। अन्य वैयाकरण जब ‘सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धात् में 'र' आगम को स्वीकार करते हैं तब सिद्धसेन ने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातु का 'र' आगम वाला प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त देवनन्दी पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' २२ नाम की तत्त्वार्थटीका के सप्तम् अध्यायगत १३वें सूत्र की टीका में सिद्धसेन दिवाकर के एक पद्य का अंश 'उक्तं च' शब्द के साथ उदधृत पाया जाता है और वह है- “उक्तं च वियोजयति चासभिर्न च वधेन संयुज्यते”।२३ यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिंशिका के १६ पद्य का प्रथम चरण है। देवनन्दी का समय विक्रम की छठी शताब्दी२४ का पूर्वाद्ध है अर्थात् पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से छठी शताब्दी के पूर्वार्ध तक लम्बा है, इससे सिद्धसेन को पाँचवी शताब्दी का मानने वाली बात अधिक तर्कसंगत है। दिवाकर को यदि देवनन्दी से पूर्ववर्ती या देवनन्दी के वृद्ध समकालीन रूप में माना जाय तो भी उनका समय पांचवी शताब्दी से परवर्ती नहीं ठहरता।
पंडित जुगलकिशोर मुख्तार ने पंडित सुखलाल जी के इन प्रमुख तर्कों को अयुक्तियुक्त बतलाया है। अपने ग्रन्थ पुरातन-जैन-वाक्यसूची२५ की प्रस्तावना में पण्डित जुगल किशोर जी ने अपने मत के समर्थन एवं पण्डित सुखलाल जी के मत के खण्डन में मुख्य रूप से दो तर्क दिए हैं जिनका सार इस प्रकार है
प्रथम तो मल्लवादी जिनभद्र से पूर्व थे यह सिद्ध ही नहीं होता क्योंकि उनके जिस उपयोग योगपद्वाद की विस्तृत समालोचना जिनभद्र के दो ग्रन्थों में बतलाई गई है, उनमें कहीं भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डित जी उस उल्लेख वाले अंश को उद्धृत करके ही संतोष करते दूसरे, मल्लवादी (ई०स०५२५-५७५) के द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकों में दिवाकर का सूचन मिलने और जिनभद्र का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं, यह तर्क भी अभीष्ट सिद्धि में सहायक नहीं होता। क्योंकि एक तो किसी विद्वान् के लिए यह लाज़िमी नहीं है कि वह अपने ग्रन्थ में पूर्ववर्ती अमुक-अमुक विद्वानों का उल्लेख करे ही एवं जब मूल 'द्वादशारनयचक्र' के कुछ प्रतीक ही उपलब्ध है तो अनुपलब्ध अंशों में जिनभद्र अथवा उनके किसी ग्रंथादि का उल्लेख नहीं है इसका क्या प्रमाण है? अत: मल्लवादी का जिनभद्र के पूर्ववर्ती बतलाना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है।
दूसरा प्रमुख तर्क यह है कि मुनि श्री जम्बूविजय जी ने मल्लवादी के सटीक नयचक्र का पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्री आत्मानन्द प्रकाश' (वर्ष ४५
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