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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नियुक्ति के पूर्व क्रमवाद का सिद्धान्त अस्तित्व में आया होगा। प्रज्ञापना का काल ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। देवेन्द्रस्तव के काल के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए डॉ०सागरमल जैन ने लिखा है कि देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित हुए हैं, जो कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार आर्य शांतिश्रेणिक के बाद हए हैं। शांतिश्रेणिक उच्चनागरी शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। इसी उच्चनागरी शाखा में आगे चलकर तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति भी हुए हैं। कल्पसूत्र, स्थविरावली के अनुसार ऋषिपालित, शांतिश्रेणिक के बाद हुए हैं, जिनसे ऋषिपालित शाखा निकली थी। यदि कल्पसत्र, स्थविरावली के आधार पर उनके कालक्रम का निर्धारण करें तो ऋषिपालित महावीर के पश्चात् ग्यारहवीं पीढ़ी में आते हैं। सामान्य अनुमान से एक आचार्य का काल तीस वर्ष मानने पर इनका काल महावीर के निर्वाण के ३०० वर्ष पश्चात् अर्थात् ई०पू०२२७ या ई०पू० १९७ आता है। आर्य सुहस्ति जो सम्प्रति के समकालीन माने जाते हैं एवं जिनका काल ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी माना जाता है, ऋषिपालित उनसे चौथी पीढ़ी में आते हैं अर्थात् वे आर्य सुहस्ति के १०० वर्ष पश्चात् हुए होंगे। ऐसी स्थिति में ऋषिपालित का काल ई०पू० प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में मानना होगा। यह 'देविन्दत्यओ' के काल की उत्तर सीमा है। यदि हम नीचे के आचार्यों के क्रम की दृष्टि से विचार करें तो यह सुनिश्चित है कि आर्यवज्र जिनसे वज्री शाखा निकली एवं जिनका निर्वाण वीर सं०५८५ माना जाता है, आर्य शांतिश्रेणिक के गुरुभाई सिंहगिरि के शिष्य हैं। इस प्रकार ऋषिपालित
और आर्यवज्र समकालीन सिद्ध होते हैं। ऐसी स्थिति में ऋषिपालित का समय वीर निर्वाण ५८५ के आसपास सिद्ध होता है अर्थात् वे ईसा की द्वितीय शताब्दी के सिद्ध होते हैं। अत: हमें मानना होगा कि यह क्रमवाद एवं युगपद्वाद की अवधारणाएँ ईसा की दूसरी शताब्दी के पूर्व में अस्तित्व में आ गई थीं। आवश्यकनियुक्ति का सन्दर्भ देकर पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आवश्यकनियुक्ति द्वितीय भद्रबाहु की रचना है और उनका काल वि०सं०५६२ है एवं उनके कथन का खण्डन सन्मति में होने से सिद्धसेन उनके पश्चात् अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के तृतीय चरण से सातवीं शताब्दी के तृतीय चरण के बीच कहीं हुए हैं। किन्तु जिस क्रमवाद का खण्डन सन्मतिसत्र में है, यदि वह देवेन्द्रस्तव, जो दूसरी शताब्दी का ग्रन्थ है, में उल्लिखित है तो हमें और आदरणीय मुख्तार जी को यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि सिद्धसेन का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी के बाद कहीं भी निश्चित किया जा सकता है।
आदरणीय पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं कि पण्डित सुखलाल जी नियुक्तिकार भद्रबाहु को प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी
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