________________
XVIII
सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नहीं रही है कि वे आवश्यक रूप से जो मूलग्रन्थकार का मंतव्य नहीं है उसका उल्लेख करें। सिद्धर्षि की न्यायावतार वृत्ति में नयों की जो चर्चा है वह किसी मूल कारिका की व्याख्या न हो करके एक परिशिष्ट के रूप में की गयी चर्चा ही है क्योंकि मूल ग्रन्थ की २९वीं कारिका में मात्र 'नय' शब्द आया है उसमें कहीं भी नय कितने हैं यह उल्लेख नहीं है, यह टीकाकार की अपनी व्याख्या है और टीकाकार के लिए यह बाध्यता नहीं होती है कि वह उन विषयों की चर्चा न करे जो मूल नहीं है। इतना निश्चित है कि यदि सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ होती तो वे मूल में कहीं न कहीं नयों की चर्चा करते। इससे यही फलित होता है कि मूल ग्रन्थकार और वृत्तिकार दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं। ___टीका में नवीन-नवीन विषयों का समावेश यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार की सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ नहीं है। जहाँ तक डॉ० पाण्डेय के इस तर्क का प्रश्न है कि वृत्तिकार ने मूलग्रन्थकार का निर्देश प्रारम्भ में क्यों नहीं किया इस सम्बन्ध में मेरा उत्तर यह है कि जैन परम्परा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ वृत्तिकार मूलग्रन्थकार से भिन्न होते हुए भी मूल ग्रन्थकार का निर्देश नहीं करता है। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्थसत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहीं भी यह निर्देश नहीं है कि वह उमास्वाति के मूल ग्रन्थ पर टीका लिख रहा है। ये लोग प्राय: केवल ग्रन्थ का निर्देश करके ही संतोष कर लेते थे, ग्रन्थकार का नाम बताना आवश्यक नहीं समझते थे क्योंकि वह जनसामान्य में ज्ञात ही होता था। अत: यह मानना कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति न होकर सिद्धर्षि की कृति है और उस पर लिखी गयी न्यायावतार वृत्ति स्वोपज्ञ है उचित प्रतीत नहीं होता।
न्यायावतार सिद्धसेन की कृति है इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण तो यह है कि मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ नयचक्र में स्पष्ट रूप से सिद्धसेन को न्यायावतार का कर्ता कहा है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रतिलिपिकारों के प्रमाद के कारण ही कहीं न्यायावतार की जगह नयावतार हो गया है। प्रतिलिपियों में ऐसी भूलें सामान्यतया हो ही जाती हैं।
जहाँ तक सिद्धसेन की उन स्तुतियों का प्रसङ्ग है जिनमें महावीर के विवाह आदि के संकेत हैं, दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा कि यह किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है उचित नहीं है। केवल अपनी परम्परा से समर्थित न होने के कारण किसी अन्य सिद्धसने की कृति कहें, यह उचित नहीं है।
उपरोक्त दो प्रश्नों पर लेखक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय से मतभेद रखते हुए भी मैं इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उन्होंने इस कृति का प्रणयन पक्ष व्यामों से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org