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भूमिका
XVII
न्यायावतार की वृत्ति में स्पष्टत: इन प्रमाणों की चर्चा की है- जबकि आठवीं शती तक के किसी श्वेताम्बर आचार्य में इनकी चर्चा नहीं है, यहाँ तक कि हरिभद्र भी इन प्रमाणों की चर्चा नहीं करते हैं- पूर्ववर्ती श्वेताम्बराचार्य आगमिक तीन प्रमाणों प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द की चर्चा करते हैं। अत: यह सिद्ध हो जाता है कि न्यायावतार, आगमिक तीन प्रमाणों का ही उल्लेख करने के कारण सिद्धसेन दिवाकर की ही कृति है। यदि यह सिद्धर्षि की कृति होती तो निश्चय ही मृल कारिका में इनकी चर्चा होनी थी। पन: डॉ० पाण्डेय का यह कथन की स्वोपज्ञवृत्ति में कतिपय विषय बिन्दु.ऐसे मिलते हैं जिनका उल्लेख मूल में नहीं है परन्तु भाष्य या वृत्ति में होता है किन्तु मैं डॉ०पाण्डेय के इस तर्क से सहमत नहीं हूँ क्योकि यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की वृत्ति होती तो वे कम से कम यह तर्क नहीं देते कि इस न्यायावतार प्रकरण में अनुमान से ऊह को पृथक् करके नहीं दिखाया गया क्योंकि यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि के जीवों के अनुग्रह के लिए लिखा गया। इस प्रसंग में यदि सिद्धर्षि ने स्वयं ही मुलग्रंथ लिखा होता तो अवश्य यह लिखते कि मैंने यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि वाले लोगों के लिए बनाया। सिद्धर्षि ने कहीं भी इस तथ्य का निर्देश नहीं किया है कि मलग्रंथ मेरे द्वारा बनाया गया है। अत: यह कल्पना करना निराधार है कि मूल न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति है और उस पर उन्होंने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है।
यह सत्य है कि उस युग में स्वोपज्ञ टीका या वृत्ति लिखे जाने की प्रवृत्ति प्रचलन में थी किन्तु इस सिद्धर्षि की वृत्ति से कहीं भी फलित नहीं होता है कि वह स्वोपज्ञ है। पुन: स्वोपज्ञवृत्ति में मूल में वर्णित विषयों का ही स्पष्टीकरण किया जाता है, उसमें नये विषय नहीं आते। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्थसूत्र मूल में गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा नहीं है तो उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी किसी भी स्थान में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा नहीं की गयी किन्तु अन्य आचार्यों के द्वारा जब उस पर टीकायें लिखी गयीं तो उन्होंने विस्तार से गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की। इससे यही फलित होता है कि न्यायावतार की मूल कारिकायें सिद्धर्षि की कृति नहीं हैं। यदि मूलकारिकाएँ भी सिद्धर्षि की कृति होती तो उनमें नेगमादि नयों एवं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा तर्क आदि प्रमाणों की कहीं कोई चर्चा होनी थी।
- नय विवेचन के सन्दर्भ में डॉ० पाण्डेय का यह तर्क भी समीचीन नहीं है कि "यदि सिद्धर्षि सिद्धसेन के ग्रन्थ पर वृत्ति लिखे होते तो जो सिद्धसेन को अभीष्ट नहीं है या तो उसका उल्लेख नहीं करते या उल्लेख करते भी तो यह कहकर कि मूलकार इसे नहीं मानता'। यहाँ उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि टीकाकारों के द्वारा अपनी नवीन मान्यता को प्रस्तुत करते समय कहीं भी यह लिखने की प्रवृत्ति
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