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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
या कुन्दकुन्द से प्रभावित हैं। अपितु स्थिति इसके ठीक विपरीत है। वडकर और कुन्दकुन्द दोनों ही ने प्राचीन आगमिक धारा और सिद्धसेन का अनुकरण किया । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में त्रस-स्थावर का वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्ष मार्ग की कल्पना आदि पर आगमिक धारा का प्रभाव स्पष्ट है, चाहे यह यापनीयों के माध्यम से ही उन तक पहुँचा हो । मूलाचार का तो निर्माण ही आगमिक धारा के नियुक्ति और प्रकीर्णक साहित्य के आधार पर हुआ है। उस पर सिद्धसेन का प्रभाव होना भी अस्वाभाविक नहीं है। आचार्य जटिल के वरांगचरित में भी सन्मति की अनेक गाथाएँ अपने संस्कृत रूपान्तर में प्रस्तुत हैं। यह सब इसी बात का प्रमाण है कि ये सभी अपने पूर्ववर्ती - आचार्य सिद्धसेन से प्रभावित हैं ।
XII
प्रो० उपाध्ये का यह मानना कि महावीर का सन्मतिनाम कर्नाटक में अति प्रसिद्ध है और सिद्धसेन ने इसी आधार पर अपने ग्रन्थ का नाम सन्मति दिया होगा. अतः सिद्धसेन यापनीय हैं, मुझे समुचित नहीं लगता है। श्वेताम्बर साहित्य में भी महावीर के सन्मति विशेषण का उल्लेख मिलता है, जैसे सन्मति से युक्त होने से वे श्रमण कहे गए हैं। इस प्रकार प्रो०ए०एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के जो-जो प्रमाण दिये हैं वे सबल प्रतीत नहीं होते हैं।
सुश्री कुसुम पटोरिया ने जुगल किशोर मुख्तार एवं प्रो० उपाध्ये के तर्कों के साथ-साथ सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए अपने भी कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं। वे लिखती हैं कि सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी आदरपूर्वक उल्लेख है। जीतकल्पचूर्णि में सन्मतिसूत्र को सिद्धिविनिश्चय के समान प्रभावक ग्रन्थ कहा है । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धिविनिश्चय को शिवस्वामि की कृति कहा गया है। शाकटायन व्याकरण में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है । यदि एक क्षण के लिए मान भी लिया जाये कि ये शिवस्वामि भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य ही हैं तो भी इससे इतना ही फलित होगा कि कुछ यापनीय कृतियाँ श्वेताम्बरों को मान्य थी, किन्तु इससे सिद्धसेन का यापनीयत्व सिद्ध नहीं होता है।
पुनः सन्मतिसूत्र में अर्द्धमागधी आगम के उद्धरण भी यही सिद्ध करते हैं कि वे उस आगमिक परम्परा के अनुसरणकर्ता हैं जिसके उत्तराधिकारी श्रेताम्बर एवं यापनीय दोनों है। यह बात हम पूर्व में ही प्रतिपादित कर चुके हैं कि आगमों के अन्तर्विरोध को दूर करने के लिए ही उन्होंने अपने अभेदवाद की स्थापना की थी। सुश्री कुसुम पटोरिया ने विस्तार से सन्मतिसूत्र में उनके आगमिक अनुसरण की चर्चा की है। यहाँ हम उस विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि सिद्धसेन उस आगमिक धारा में ही हुए हैं जिसका अनुसरण श्वेताम्बर
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