SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका XI एक ही गण के सिद्ध होते हैं, किन्तु शाखा का अन्तर अवश्य विचारणीय है। सम्भवत: आर्य वृद्ध सिद्धसेन के विद्यागुरु हों, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य सिद्धसेन का सम्बन्ध उसी कोटिकगण से है जो श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही परम्पराओं के पूर्वज हैं। ज्ञातव्य है कि उमास्वाति भी इसी कोटिक गण की उच्चनागरी शाखा में हुए थे। __ हम चाहे उनके गण (वंश) की दृष्टि से विचार करें या काल की दृष्टि से विचार करें सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे। वे उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा में हुए हैं जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में विभाजित हुई। यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख उन्हें अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान् आचार्य होने के कारण ही है। वस्तुत: सिद्धसेन को श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध करने के प्रयत्न इसलिए निरर्थक हैं कि पूर्वज धारा में होने के कारण क्वचित मतभेदों के होते हुए भी वे दोनों के लिए समान रूप से ग्राह्य रहे हैं। श्वेताम्बर और यापनीय दोनों को यह अधिकार है कि वे उन्हें अपनी परम्परा को बताएँ किन्तु उन्हें साम्प्रदायिक अर्थ में श्वेताम्बर या यापनीय नहीं कहा जा सकता है। वे दोनों के ही पूर्वज हैं। (७) प्रो०ए०एन० उपाध्ये ने उन्हें कर्नाटकीय ब्राह्मण बताकर कर्नाटक में यापनीय परम्परा का प्रभाव होने से उनको यापनीय परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया है। किन्तु उत्तर-पश्चिम कर्नाटक में उपलब्ध पाँचवी, छठी शताब्दी के अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के श्वेतपट्ट महाश्रमणसंघ का भी उस क्षेत्र में उतना ही मान था जितना निर्ग्रन्थ संघ और यापनीयों का था। उत्तर भारत के ये अचार्य भी उत्तर कर्नाटक तक की यात्रायें करते थे। सिद्धसेन यदि दक्षिण भारतीय ब्राह्मण भी रहे हों तो इससे यह फलित नहीं होता है कि वे यापनीय थे। उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा, जिससे श्वेताम्बर और यापनीयों का विकास हुआ है, का भी बिहार दक्षिण में प्रतिष्ठानपुर अर्थात् उत्तर पश्चिमी कर्नाटक तक निर्बाध रूप से होता रहा है। अत: सिद्धसेन का कर्नाटकीय ब्राह्मण होना उनके यापनीय होने का प्रबल प्रमाण नहीं माना जा सकता है। मेरी दृष्टि में इतना मानना ही पर्याप्त है कि सिद्धसेन कोटिक गण की उस विद्याधर शाखा में हुए थे जो कि श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वज है। (८) पुन: कुन्दकुन्द के ग्रन्थों और वट्टकेर के मूलाचार की जो सन्मतिसूत्र से निकटता है, उसका कारण यह नहीं है कि सिद्धसेन दक्षिण भारत के वट्टकेर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy