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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अभेदवाद की निकटता के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष का सिद्ध नहीं किया जा सकता है। अन्यथा फिर तो तत्त्वार्थभाष्यकार को भी दिगम्बर मानना होगा, किन्तु कोई भी तत्त्वार्थभाष्य की सामग्री के आधार पर उसे दिगम्बर मानने को सहमत नहीं होगा।
(४) पुन: आदरणीय उपाध्येजी का यह कहना कि एक द्वात्रिंशिका में महावीर के विवाहित होने का संकेत चाहे सिद्धसेन दिवाकर को दिगम्बर घोषित नहीं करता हो, किन्तु उन्हें यापनीय मानने में इससे बाधा नहीं आती है, क्योंकि यापनीयों को भी कल्पसूत्र तो मान्य था ही। किन्तु कल्पसूत्र को मान्य करने के कारण वे श्वेताम्बर भी तो माने जा सकते हैं। अत: यह तर्क उनके यापनीय होने का सबल तर्क नहीं है। कल्पसूत्र श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्व का ग्रन्थ है और दोनों को मान्य है। अत: कल्पसूत्र को मान्य करने से वे दोनों के पूर्वज भी सिद्ध होते हैं।
आचार्य सिद्धसेन के कुल और वंश सम्बन्धी विवरण भी उनकी परम्परा निर्धारण में सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं। प्रभावकचरित्र और प्रबन्धकोश में उन्हें विद्याधर गच्छ का बताया गया है। अत: हमें सर्वप्रथम इसी सम्बन्ध में विचार करना होगा। दिगम्बर परम्परा ने सेन नामान्त के कारण उनको सेनसंघ का मान लिया है। यद्यपि योपनीय और दिगम्बर ग्रन्थों में जहाँ उनका उल्लेख हुआ है वहाँ उनके गण या संघ का कोई उल्लेख नहीं है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य सुस्थित के पाँच प्रमुख शिष्यों में स्थविर विद्याधरगोपाल एक प्रमुख शिष्य थे। उन्हीं से विद्याधर शाखा निकली। यह विद्याधर शाखा कोटिक गण की एक शाखा थी। हमारी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इसी विद्याधर शाखा में हुए हैं। परवर्ती काल में गच्छ नाम प्रचलित होने के कारण ही प्रबन्धों में इसे विद्याधर गच्छ कहा गया है। ___ कल्पसूत्र स्थविरावली में सिद्धसेन के गुरु आर्य वृद्ध का भी उल्लेख मिलता है। इस आधार पर यदि हम विचार करें तो आर्य वृद्ध का काल देवर्धिगणि से चार पीढ़ी पूर्व होने के कारण उनसे लगभग १२० वर्ष पूर्व रहा होगा अर्थात् वे वीर निर्वाण सम्वत् ८६० में हुए होंगे। इस आधार पर उनकी आर्य स्कंदिल से निकटता भी सिद्ध हो जाती है, क्योंकि माथुरी वाचना का काल वीर निर्वाण सं० ८४० माना जाता है इस प्रकार उनका काल विक्रम की चौथी शताब्दी निर्धारित होता है। मेरी दृष्टि में आचार्य सिद्धसेन इन्हीं आर्य वृद्ध के शिष्य रहे होंगे। अभिलेखों के आधार पर आर्य वृद्ध कोटिक गण की व्रजी शाखा के थे। विद्याधर शाखा भी इसी कोटिक गण की एक शाखा थी। गण की दृष्टि से तो आर्य वृद्ध और सिद्धसेन
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