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भूमिका
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और यापनीय दोनों ने किया है और यही कारण है कि दोनों ही उन्हें अपनी-अपनी परम्परा का कहते हैं।
आगे वे पुन: यह स्पष्ट करती हैं कि गुण और पर्याय के सन्दर्भ में भी उन्होंने आगमों का स्पष्ट अनुसरण किया है और प्रमाणरूप में आगम वचन उदधत किये हैं। यह भी उन्हें आगमिक धारा का ही सिद्ध करता है। श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धारायें अर्धमागधी आगम को प्रमाण मानती हैं। सिद्धसेन के सम्मुख जो आगम थे वे देवर्द्धि वाचना के न होकर माथुरी वाचना के रहे होंगे क्योंकि देवर्द्धि निश्चित ही सिद्धसेन से परवर्ती हैं। . सुश्री पटोरिया ने मदनूर जिला नेल्लौर के एक अभिलेख१६ का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि कोटमुडुवगण में मुख्य पुष्याहनन्दि गच्छ में गणधर के सदृश जिननन्दी मुनीश्वर हुए हैं। उनके शिष्य पृथ्वी पर विख्यात केवलज्ञान निधि के धारक स्वयं जिनेन्द्र के सदृश दिवाकर नाम के मुनि हुए। यह सत्य है कि यह कोटिमडुवगण यापनीय है। किन्तु इस अभिलेख में उल्लेखित दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर है, यह कहना कठिन है क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्रीमंदिर देवमनि का उल्लेख है जिनके द्वारा अधिष्ठित कंटकाभरण नामक जिनालय को यह दान दिया गया था। यदि दिवाकर मन्दिरदेव के गुरु हैं तो वे सिद्धसेन दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं क्योंकि इस अभिलेख के अनुसार मन्दिरदेव का काल ईस्वी सन् ९४२ अर्थात् वि०सं० ९९९ है। इनके गुरु इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माने जाये तो वे दसवीं शताब्दी उत्तरार्ध में ही सिद्ध होंगे जबकि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी स्थिति में पाँचवी शती से परवर्ती नहीं हैं। अत: वे दिवाकर सिद्धसेन नहीं हो सकते हैं। दोनों के काल में लगभग ६०० वर्ष का अन्तर है। यदि इसमें उल्लेखित दिवाकर को मन्दिरदेव का साक्षात गुरु न मानकर परम्परा गुरु मानें तो इससे उनका यापनीय होना सिद्ध नहीं होता है क्योंकि परम्परा गुरु के रूप में तो गौतम आदि गणधरों एवं भद्रबाहु आदि प्राचीन आचार्यों का भी उल्लेख किया जाता है। अन्त में सिद्ध यही होता है कि सिद्धसेन दिवाकर यापनीय न होकर यापनीयों के पूर्वज थे। सिद्धसेन श्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैं
सिद्धसेन को पाँचवीं शती के पश्चात् के सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने आनी परम्परा का माना है। अनेकश: श्वेताम्बर ग्रन्थों में श्वेताम्बर आचार्य के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश भी है, और यह भी निर्देश है कि वे कुछ प्रश्नों पर आगमिक धाग से मतभेद रखते हैं। फिर भी कहीं भी उन्हें अपनी परम्परा से भिन्न नहीं माना गया है। अत: सभी साधक प्रमाणों की समीक्षा के आधार पर यही फलित होता है कि
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