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भूमिका
III
किया है। पूज्यपाद देवनन्दी का काल विक्रम की पाँचवी-छठी शती माना गया है। इससे भी वे विक्रम संवत् के छठी शताब्दी के पूर्व हुए हैं, यह तो सुनिश्चित हो जाता है। ___मथुरा के अभिलेखों में दो अभिलेख ऐसे हैं, जिनमें आर्य वृद्धहस्ति का उल्लेख है। संयोग से इन दोनों अभिलेखों में काल भी दिया हुआ है। ये अभिलेख हुविष्क के काल के हैं। इनमें से प्रथम में वर्ष ६० का और द्वितीय में वर्ष ७९ का उल्लेख है। यदि हम इसे शक संवत् मानें तो तद्नुसार दूसरे अभिलेख का काल लगभग विक्रम संवत् २१५ होगा। यदि ये लेख उनकी युवावस्था के हों तो आचार्य वृद्धहस्ति का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध तक माना जा सकता है। इस दृष्टि से सिद्धसेन का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध से चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच माना जा सकता है।
इस समग्र चर्चा से इतना निश्चित होता है कि सिद्धसेन दिवाकर के काल की सीमा रेखा विक्रम संवत् की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर विक्रम संवत् की पंचम शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच ही कहीं निश्चित होगी। पं० सुखलाल जी, पं0 बेचरदास जी ने उनका काल चतुर्थ-पंचम शताब्दी निश्चित किया है। प्रो० ढाकी ने भी उन्हें पाँचवी शताब्दी के उत्तरार्ध में माना है, किन्तु इस मान्यता को उपर्युक्त अभिलेखों के आलोक में तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय से समकालिकता की दृष्टि से थोड़ा पीछे लाया जा सकता है। यदि आर्य वृद्धहस्ति ही वृद्धवादी हैं और सिद्धसेन उनके शिष्य हैं तो सिद्धसेन का काल विक्रम की तृतीय शती के उत्तरार्ध से चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच ही मानना होगा। कुछ प्रबन्धों में उन्हें आर्य धर्म का शिष्य भी कहा गया है। आर्य धर्म का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। वे आर्य वृद्ध के बाद तीसरे क्रम पर उल्लिखित है। इसी स्थविरावली में एक आर्य धर्म देवर्धिगणिक्षमाश्रमण के पूर्व भी उल्लेखित हैं। यदि हम सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण
और तत्त्वार्थसूत्र की तुलना करें तो दोनों में कुछ समानता परिलक्षित होती है। विशेष रूप से तत्त्वार्थसूत्र में अनेकान्त दृष्टि को व्याख्यायित करने के लिए 'अर्पित'
और 'अनर्पित' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का प्रयोग सन्मतितर्क (१/४२) में भी पाया जाता है। मेरी दृष्टि में सिद्धसेन उमास्वाति से किंचित् परवर्ती हो सकते हैं।
सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा
जहाँ तक उनकी परम्परा का प्रश्न है डॉ० पाण्डेय ने इसकी विस्तृत चर्चा नहीं की है। सम्भवत: डॉ० पाण्डेय ने उनकी परम्परा के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख यह
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