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सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वस्तुतः सिद्धसेन के सन्दर्भ में प्रमुख रूप से तीन ऐसी बाते रही हैं जिनपर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है
II
(१) उनका सत्ता काल
(२) उनकी परम्परा और
(३) न्यायावतार एवं कुछ द्वात्रिशद्वात्रिंशिकाओं के कृतित्व का प्रश्न ।
यद्यपि उनके सत्ताकाल के सन्दर्भ में मेरे मन्तव्य एवं डॉ० पाण्डेय के मन्तव्य में अधिक दूरी नहीं है फिर भी जहाँ उन्होंने अपने निष्कर्ष में सिद्धसेन को ५वीं शताब्दी का आचार्य माना है, वहाँ मैं इस काल सीमा को लगभग १०० वर्ष पहले ले जाने के पक्ष में हूँ। जिसकी चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा ।
सिद्धसेन का काल
उनके काल के सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी ने एवं डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय विस्तृत चर्चा की है। अतः हम तो यहाँ केवल संक्षिप्त चर्चा करेंगे। प्रभावकचरित में सिद्धसेन की गुरु परम्परा की विस्तृत चर्चा हुई है। उसके अनुसार सिद्धसेन आर्य स्कन्दिल के प्रशिष्य और वृद्धवादी के शिष्य थे। आर्य स्कन्दिल को माथुरी वाचना का प्रणेता माना जाता है। यह वाचना वीर निर्वाण ८४० में हुई थी । इस दृष्टि से आर्य स्कन्दिल का समय विक्रम की चतुर्थ शताब्दी (८४०-४७०=३७०) के उत्तरार्ध के लगभग आता है। कभी-कभी प्रशिष्य अपने प्रगुरु के समकालिक भी होता है, इस दृष्टि से सिद्धसेन दिवाकर का काल भी विक्रम की चौथी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है । प्रबन्धों में सिद्धसेन को विक्रमादित्य का समकालीन माना गया है। यदि चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य मान लिया जाय तो सिद्धसेन चतुर्थ शती के सिद्ध होते हैं। यह माना जाता है उनकी सभा में कालिदास, आदि नौ रत्न थे। यदि क्षपणक सिद्धसेन ही थे तो इस दृष्टि से भी सिद्धसेन का काल विक्रम की चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध माना जा सकता हैं, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल भी विक्रम की चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है । पुनः मल्लवादी ने सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क पर टीका लिखी थी, ऐसा निर्देश आचार्य हरिभद्र ने किया है। प्रबन्धों में मल्लवादी का काल वीर निर्वाण संवत् ८८४ (८८४-४७०=४१४) के आसपास माना जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सन्मतिसूत्र पर टीका लिखी जा चुकी थी । अतः सिद्धसेन विक्रम की चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए होंगे। पुनः विक्रम की छठी शताब्दी में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण में सिद्धसेन के मत का उल्लेख
क्षपणक
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