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IV
सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जानकर नहीं किया हो कि इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने ग्रन्थ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय में की है। अत: मैं यह आवश्यक समझता हूँ कि यह चर्चा इस भूमिका में कर दी जाए।
सिद्धसेन दिवाकर के सम्प्रदाय के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण परिलक्षित होते हैं। जिनभद्र, हरिभद्र आदि से प्रारम्भ करके पं० सुखलाल जी, पं०बेचरदास जी आदि सभी श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् एकमत से उन्हें अपने सम्प्रदाय का स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत षट्खण्डागम की धवला टीका एवं जिनसेन के हरिवंश तथा रविषेण के पद्मपुराण में सिद्धसेन का उल्लेख होने से पं० जुगल किशोर मुख्तार जैसे दिगम्बर परम्परा के कुछ विद्वान् उन्हें अपनी परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किन्तु दिगम्बर परम्परा से उनकी कुछ भिन्नताओं को देखकर प्रो०ए०एन०उपाध्ये आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने उन्हें यापनीय परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयास किया है। प्रो०उपाध्ये ने जो तर्क दिये उन्हें स्पष्ट करते हुए तथा अपनी ओर से कुछ अन्य तर्कों को प्रस्तुत करते हुए डॉ० कुसुम पटोरिया ने भी उन्हें यापनीय परम्परा का सिद्ध किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम इन विद्वानों के मन्तव्यों की समीक्षा करते हुए यह निश्चय करने का प्रयत्न करेंगे कि वस्तुतः सिद्धसेन की परम्परा क्या थी? क्या सिद्धसेन दिगम्बर हैं?
समन्तभद्र की कृति के रूप में मान्य रत्नकण्डक श्रावकाचार में प्राप्त न्यायावतार की जिस समान कारिका को लेकर विवाद है कि यह सिद्धसेन ने समन्तभद्र से ली है, इस सम्बन्ध में प्रथम तो यह निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्ड समन्तभद्र की कृति है दूसरे यह कि यह कारिका दोनों ग्रन्थों में अपने योग्य स्थान पर है अत: इसे सिद्धसेन से समन्तभद्र ने लिया है या समन्तभद्र से सिद्धसेन ने लिया है यह कह पाना कठिन है। तीसरे, यदि समन्तभद्र भी लगभग ५वीं शती. के आचार्य हैं और न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में बाधा नहीं है, तो यह भी सम्भव है, समन्तभद्र ने इसे सिद्धसेन से लिया हो। समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में भी सन्मतितर्क की कई गाथाएँ अपने संस्कृत रूप में मिलती हैं।
पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को दिगम्बर परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं तथापि मुख्तार जी उन्हें दिगम्बर परम्परा का आचार्य होने के सम्बन्ध में कोई भी आधारभूत प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। उनके तर्क मुख्यतः दो बातों पर स्थित हैं- प्रथमत: सिद्धसेन के ग्रन्थों से यह फलित नहीं होता कि वे स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और सवस्त्रमुक्ति आदि के समर्थक
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