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संस्कृत जैन श्रीकृष्ण-साहित्य
अनेक भावधाराओं के बीच समन्वय, युद्ध, विवाह, जन्म, तपस्या, दीक्षा और कैवलज्ञानोत्सव का वर्णन एवं शक्तिगत वैशिष्ट्य आदि इसे महाकाव्य की कोटि में प्रस्तुत करते हैं । चतुर्वर्ग फलप्राप्ति काव्य में निहित है ।
रसवर्णन
प्रस्तुत काव्य में अंगी रस शान्त है, अंगरूप वीर, भयानक, शृंगार और करुण रस का नियोजन किया है । कथा के सातों ही नायक अंतिम जीवन में संसार से विरक्त बन तपश्चरण करते हैं और निर्वाण को प्राप्त होते हैं। शांत रस का निरूपण करते हुए निर्वेद स्थायीभाव की व्यंजना की है
सविषयो विषयोजनभक्ष्यवत्
सुमनसां मनसां भयकारणम् । भुविदितो विदितो पि तदामया, शवरसंवरसंकलितोऽभवत् 1184
विषयों की अभिलाषा विषमिश्रित भोजन के सेवन करने के समान है, अतः विषयेच्छा विचारशील व्यक्तियों के हृदय में भय उत्पन्न करती है । अतएव इस जगत्प्रसिद्ध विषयाभिलाषा का त्याग करने के लिए संवर की चर्चा करके कवि ने निर्वेद की व्यंजना की है ।
अलंकार वर्णन
प्रस्तुत काव्य में अलंकारों के तीनों प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार और उपमालंकार की योजना की है। अनुप्रास, यमक, चित्र, शब्दालंकार हैं तो श्लेष उभयालंकार भी निहित हैं । अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विरोध, अतिशयोक्ति प्रभृति अलंकार प्रधान हैं। यथा
उत्प्रेक्षा - कवि ने भरत क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखा है
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मेघस्य हेमाद्रिरमुख्यचूर्ला
स्वाद्रोहिता' सरिच्च वामा ।
सादक्षिणा सिन्धुसरिद् रसानं
तयोः पथस्ते नयने च मन्ये ॥165
६४. सप्तसन्धानकाव्य, जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत, वि० सं० २०००, ८/२५ ६५. सप्तसन्धानकाव्य, जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत, १/२१
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