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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
इस भरत क्ष ेत्र का सिर हिमालय पर्वत है और हिमालय में प्रवाहित होने वाली रोहिता नाम की नदी इसकी चूडा है । आकाशगंगा वाम भ्रू और सिन्धु दक्षिण भ्रू है । नदी निर्गमनलिका जिह्वा है और गंगा तथा सिन्धु के ऊपरी भाग दोनों नेत्र हैं । इस प्रकार हिमालय की कल्पना सिर के रूप में की गयी है ।
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शैली - प्रसादगुण युक्त शैली होने पर भी श्लेष के कारण अर्थबोध में कुछ कठिनाई अवश्य आ जाती है । कवि ने अनुप्रास के साथ कोमलकान्त पदावली का व्यवहार किया है । यथा
दिवानिशं केलिकलाकलापै - रालीषु तालीविधिनोपजापैः । सत्यासुदव्या दिवसाः सुखेन, सूर्यः सत्यागमयांबभूवुः 1166
अस्तु, काव्य कसौटी पर कसने से कवि का प्रस्तुत काव्य खरा उतरता है तथा कवि ने अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय प्रदान किया है।
इन प्रातिनिधिक जैन कृष्ण काव्यों का अनुशीलन कर मैंने अपना वक्तव्य यहां पर प्रस्तुत किया है । इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य रचनाएँ छूट जाती हैं । जिनको कालक्रमानुसार मैंने सूची के रूप में यहां पर प्रस्तुत कर दी है। इनमें कुछ अरिष्टनेमि के चरित्र से संबंधित हैं तो कुछ कृष्ण, प्रद्युम्न, पाण्डव और हरिवंश से संबंधित चरित्र काव्य हैं। इनका विवेचन हमारे विवेच्य विषय की परिधि के उपयुक्त नहीं था इसलिए इनका अधिक विवेचन न कर केवल सूचना मात्र दे दी हैं, जो इस प्रकार हैं :
संवत
वि० सं० १२२३
वि० सं० १२५७
वि० सं० १२८५
वि० सं० १५३०
वि० सं० १५७५
वि० सं० १६४५
वि० सं० १६५७
वि० सं० १६६८
६६. सप्तसन्धानकाव्य; जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत, २/६
नाम
अरिष्टनेमि चरित
पाण्डव चरित
नेमिनाथ चरित
प्रद्युम्न चरित
नेमिनाथ पुराण
प्रद्युम्न चरित
पाण्डवपुराण
नेमिनाथ चरित
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कृतिकार रत्नप्रभसूरि
देवप्रभसूरि
उदयप्रभसूरि सोमकीर्ति
ब्रह्म नेमिदत्त
रविसागर
श्री भूषण
गुणविजय
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