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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
छठे सर्ग में तीथकरा का कवलज्ञान की, राम को (रावण के साथ युद्ध के पश्चात्) अर्धचक्री पद की प्राप्ति होती है।
सातवें सर्ग में तीर्थंकरों के समवशरण की रचना होती है। वे मुनिमण्डलियों के साथ विहार करते हैं । उनके प्रभाव पूर्ण उपदेशों से विरक्त हो अनेक राजा महाराजा दीक्षा ग्रहण · रते हैं।
आठवें सर्ग में ऋषभनन्दन-भरत चक्रवर्ती दिग्विजय अभियान पर प्रस्थान करते हैं। वे विजय लाभ करते हैं। भगवान ऋषभदेव के मोक्ष के पश्चात् भरत उनके द्वारा परिपालित भूमि की रक्षा करते हैं ।
नौवें सर्ग में जगत भर में तीर्थंकरों का धवलयश व्याप्त हो जाता है। राम अयोध्या नरेश हो जाते हैं। कालांतर में वे तप द्वारा निर्वाण प्राप्त करते हैं । द्वैपायन ऋषि द्वारा द्वारका का विनाश होता है । बलराम तपस्या कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
महाकवि मेघविजय ने प्रस्तुत महाकाव्य के कथानक में सात कथानकों का समानान्तर रूप से निर्वाह कर प्रच र पाण्डित्य का परिचय दिया है । श्लेष द्वारा एक-एक शब्दावली से सात-सात भिन्नार्थों का सम्प्रेषण कर पाना अपने आपमें एक अद्भुत चमत्कार है । इसके प्रदर्शन में कवि सर्वथा सफल हुआ है । महाकाव्य के कथानक सूत्रों का चयन हरिवंशपुराण, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र आदि प्रतिष्ठित ग्रंथों से किया गया है। यह एक सफल महाकाव्य है और काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से भी सम्पन्न है। 'सप्तसंधान' अपनी अर्थवत्ता और अलंकार प्रयोग के लिए शाश्वत महत्व रखता है। आधार व महाकाव्यत्व
___ कवि ने अपने पूर्ववर्ती पुराण एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र आदि से प्रस्तुत कथा का चयन किया है । यद्यपि कथावस्तु में नवीनता के दर्शन नहीं होते तथापि कवि ने अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय अवश्य दिया है । महाकाव्य की दृष्टि से देखा जाए तो भी प्रस्तुत काव्य खरा उतरता है । कथावस्तु सर्गबद्ध है, मंगलाचरण स्तुतिरूप में किया गया है । दुर्जन-निन्दा, सज्जन-प्रशंसा, देश, नगर, नदो, पर्वत आदि का वर्णन, कथा के नायकों का चरित्र, भिन्न-भिन्न रसों का प्रयोग, ऋतु-चित्रण,
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