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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य अन्य पात्र-शिवादेवी नेमिनाथ की माता है। प्रतीकात्मक सम्राट मोह तथा संयम राजनीति कुशल शासकों की भांति आचरण करते हैं । मोहराज दूत कैतव को भेजकर संयम नृपति को नेमिनाथ का हृदय-दुर्ग छोड़ने का आदेश देता है । संयमराज का मंत्री विवेक दूत की उक्तियों का मुंहतोड़ उत्तर देता है।
भाषा
भाषा-शैलो की दृष्टि से काव्य की अपनी गरिमा है । प्रसादपूर्ण प्रांजल भाषा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है । कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है । काव्य में भाव व कलापक्ष का सुन्दर सगम है। अनुप्रास तथा यमक के प्रयोग भी दिखलाई पड़ते हैं । सरलता के साथ कोमलता भी द्रष्टव्य है
विवाहय कुमारेन्द्र ! बालाचंचललोचनाः ।
भुक्ष्व भोगान् समं ताभिरप्सरोभिरिवामरः ॥ प्रसाद गुण युक्त काव्य में सूक्तियों और लोकोक्तियों का विशाल कोश है। इन सब गुणों के बावजूद कुछ दोष भी भाषा-शैली को लेकर रह गये हैं, जैसे कुछ स्थलों पर विकट समासांत पदावली का प्रयोग हुआ है जहां उसका औचित्य नहीं था। छन्द पूर्ति के लिए कुछ स्थानों पर अतिरिक्त पदों को जोड़ दिया गया है । सब मिलाकर नेमिनाय महाकाव्य की भाषा में निजी आकर्षण है। विद्वत्ता-प्रदर्शन
भारवि की राह पर चलते हुए कीर्तिराज ने भी अन्तिम सर्ग में चित्रकाव्य के द्वारा चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयास किया है , पर ऐसे पद्यों की संख्या बहुत कम है । निम्नोक्त पद्य में एकाक्षरानुप्रास द्रष्टव्य है, इसको रचना केवल एक व्यंजन पर प्राश्रित है। ३ स्वर भी इसमें प्रयुक्त हुए हैं
प्रतीतान्तेत एतां ते तन्तन्तु ततताततिम् । ऋततां तां तु तोतोतुं, तातोऽततां ततोन्ततम् ॥
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