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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
चित्रकाव्य को योजना की गई है। शीर्षक व सर्गों का नामकरण भी शास्त्रोचित है। सज्जन-प्रशंसा, खल-निन्दा तथा नगर-वर्णन की रूढ़ियों का भी पालन किया है । छन्द प्रयोग सम्बन्धी परम्परा का कवि ने निर्वाह नहीं किया है। इस प्रस्तुत काव्य में अनिवार्य सभी तत्व विद्यमान हैं।
__ शास्त्रीयता-इसमें पौराणिक महाकाव्यों के अनुरूप शिवादेवो के गर्भ में जिनेश्वर का अवतरण होना, फलस्वरूप १४ स्वप्नों का दिखलाई देना, दिक्कुमारियां नवजात शिशु का सूतिकर्म करती हैं । उनका स्नात्रोत्सव स्वयं देवराज द्वारा सम्पन्न होता है। इस महाकाव्य में पौराणिकतानुसार नारी को जीवन-पथ को बाधक मानी गयी है। काव्य का पर्यवसान शान्त रस में हुआ है। काव्यनायक दीक्षित होकर केवलज्ञान व शिवत्व को प्राप्त करते हैं। पौराणिकता के साथ शास्त्रीय तत्व भी प्रचर मात्रा में हैं । अलंकारों का भावपूर्ण विधान, काव्य-रूढ़ियों का विनियोग, तीव्र रसव्यंजना, सुमधुर छन्दों का उपयोग, प्रकृति व मानव सौन्दर्य का प्रयोग, आदि-आदि इसके शास्त्रीय महाकाव्यत्व को सिद्ध करने वाले तत्व हैं। कवि-परिचय, रचना-काल
प्रस्तुत काव्य में कविवर कीतिराज के जीवन-परिचय का उल्लेख नहीं है। ऐतिहासिक लेखों के आधार पर कोतिराज अपने समय के प्रख्यात खरतरगच्छीय आचार्य थे। आप संखवालगोत्रीय शाह कोचर के वंशज दीपा के कनिष्ठ पुत्र थे। आपका जन्म सम्वत् १४४५ में दीपा की पत्नो देवलदे की क्षि से हआ था। जन्म नाम देल्हाकँवर था। आपने १४ वर्ष को अवस्था में आचार्य जिनवर्द्धन सूरि से दीक्षा ग्रहण की। आपका नाम कीर्तिराज रखा गया। गच्छनायक जिनभद्र सूरि ने सम्वत् १४५७ में आपको आचार्य पद प्रदान किया। सम्बत् १५२५ में ७६ वर्ष की आयु में आपका देहावसान हआ। आपको जब १४८० में उपाध्याय पद प्राप्त हुआ था तभो इस महाकाव्य की रचना की गयी थी । यह १४८० तथा १४६७ के मध्य लिखा गया महाकाव्य है । কথক
प्रथम सर्ग में यादवरराज समुद्रविजय की पत्नि शिवादेवी के गर्भ
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