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________________ जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य ___ यहां सुभद्रा आलम्बन विभाव है । चन्दन चर्चन, उशीर आदि का का लेप उद्दीपन विभाव है। छाती या शय्या में मुंह छिपाना अनुभाव है । स्मृति, हर्ष, लज्जा, विबोध आदि संचारो विभाव हैं । इन भावों से परिपुष्ट रति स्थायीभाव है जो विप्रलंभ शृगार को बतलाता है। अलंकार-वर्णन जैसे स्वस्थ शरीर पर आभूषणों का प्रयोग उचित लगता है। इस प्रकार के सरस काव्यों में अलंकारों का प्रयोग अपना महत्व रखता है। प्रस्तुत महाकाव्य में कवि ने अलंकारों का समावेश सुन्दर रीति से किया है। भाषा-शैली भाषा-शैली की दृष्टि से प्रस्तुत काव्य में अलंकृत शैली का प्रयोग हुआ.है। चतुर्दश सर्ग में चित्रालंकार का उपयोग करते हुए कवि ने एकाक्षर, द्यक्षर, चतुरक्षर, षडक्षर, अन्तस्थ, दन्त्य, तालव्य, ओष्ठ्य और मूर्धन्य आदि वर्गों का प्रयोग कर भाषाशैली को कलापूर्ण रूप प्रदान किया है। एकाक्षर में मात्रालंकार का प्रयोग करते हुए कवि ने अभिनव अर्थ की सृष्टि की है. लोलालोलं लुलोलेली लाली लालल्ललोल्ललः । - लोल लीलं लुलल्लोलोल्लोलल्लीलाललोललः ।60 इसे गौडीय शैली का काव्य मान सकते हैं क्योंकि इसमें प्रसंगानुकूल भाषा में रूप परिवर्तन की क्षमता है। भाव और परिस्थिति के अनुसार भाषा कहीं कोमल कहीं मधुर तो कहीं ओजस्विनी दिखाई देती है। भावों के अनुसार ध्वनियों का नियोजन करने में कवि सफल हुआ है । छन्द-योजना __ कवि ने अपने समस्त सर्गों में भिन्न-भिन्न छंदों का प्रयोग किया है। जैसे इन्द्रवज्रा, उपजाति, शार्दूल-विक्रीडित, प्रमिताक्षरा, वसन्त ५६. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० ३४०-४१, भा० ज्ञानपीठ ६०. नरनारायणानन्दमहाका 1२३ ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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