SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत जैन कृष्ण साहित्म इस प्रकार संयोग शृंगार का सांगोपांग चित्रण कवि ने बड़ी कुशलता के साथ किया है। शान्त रस संसार से निर्वेद प्राप्ति के प्रसंग में शांत रस की योजना हुई है। कवि ने लिखा है कि दानं तपो वा विषवृक्षमलं श्रद्धानतो ये न विवर्ध्य दूरम् । स्वनन्ति मूढाः स्वयमेव हिंसा-कुशीलतास्वीकरणेन सद्यः ।।38 अर्थात् जो दान और तपरूपी धर्मवृक्ष पर श्रद्धा न करते हुए दूर तक उनको नहीं बढ़ाते हैं वे मूर्ख हैं और हिंसा कुशीलादि का सेवन कर वे धर्मवृक्ष की जड़ को खोद डालते हैं। जो व्यक्ति द्रव्य या भाव हिंसा करता है उसे दुर्गति में जाना पड़ता है । अतएव विवेकी को जागृत बनकर धर्म का सेवन करना चाहिए । यही उसके लिए उपादेय है। अलंकार कवि के काव्य में अलंकारों का भी सुन्दर रूप से समावेश हुआ है। उपमा अलंकार सबसे प्रधान है। भावों द्वारा कल्पना को जितनी अधिक प्रेरणा प्राप्त होती है, उपमान योजना उतनी ही सिद्ध होती है। यथा दन्तीव भावी-पुत्र गज के समान भूरितर दान से युक्त होगा। जिस प्रकार हाथी के मद से दानवारि निकलता है, निरन्तर दानजल-मदजल झरता रहता है, इसी प्रकार पुत्र दानी होगा। यमक अन्त्य यमक की योजना करते हुए कवि ने पुष्पदन्त का स्तवन किया है। भूरिप्रभानिजितपुष्पदन्तः करायतिन्यक्कृतपुष्पदन्तः । त्रिकालसेवागतपुष्पदन्तः श्रेयांसि नो यच्छतु पुष्पदन्तः ।। जिनके दांतों ने अपनी विशाल प्रभा से पुष्पों को जीत लिया है, ३८. ३६. १३।११ ३३४० १९ ४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy