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________________ ६० रात्रि में विहार करने वाले और सूर्य के वियोग से विलाप करते हुए पक्षियों की करुण - क्रन्दनरूपी विपत्ति को देखने में असमर्थ कुमुदिनी ने अपने कमल के समान नेत्र बन्द कर लिए। यहां कुमुदिनी में मानव भावनाओं का आरोप किया गया है । रसभाव योजना ३५. ३६. ३७. विपदं विलोकयितुमक्षमा ध्रुवं प्रस्तुत काव्य में अङ्गी रस शांत है और शृंगार, वोर, करुण रसों का अङ्ग रूप में समावेश हुआ है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्व हैं श्रृंगार रस नलिनीदलानि न न हारयष्टय नलिनी सरोजनयनं न्यमीलयत् || 35 स्वदृते तदंगपरितापशान्तये, 19 " प्रस्तुत श्लोक में दुर्वह नितम्ब मण्डल वाली नायिका विनयान्वित होने पर भी, नायक को पास में आया हुआ जानकर भी अपना आसन न छोड़ सकी । शयन कक्ष में पति के आने पर उसके मुख से अनायास ही दूसरी नायिका का नाम सुन लेने से शरीर - दाह के साथ कमलिनियों से निर्मित शय्या को नायिका ने छोड़ दिया । प्रियसंग न होने पर उसके हृदय पर दृढ़तापूर्वक अपने मुख कमल को रख देना तथा पहले सोची हुई बात को कह डालना, इस प्रकार सखियों द्वारा कहे जाने पर नववधुओं ने कृत्रिम क्रोध प्रकट किया । यथा 27 जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य स्तुहिनांशवो न न जलार्द्रमंशुकम् । बृढमासजेरुरसि वक्त्रमर्पयेर्भणितं च पूर्वगुणितं प्रकाशयेः ॥ प्रियसङ्गमेष्विति सखोभिरीरिता कृतक प्रकोपमकरोन्नवा वधूः ॥ 37 Jain Education International faraisथवा स्वजनसंगर्भषजाः ॥ 36 ८११ T ૪ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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