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________________ संस्कृत जैन कृष्ण साहित्य ५७ ग्यारहवाँ सर्ग-इसी अवसर पर उग्रसेन की अतीव सुन्दरी कन्या राजीमती भी रैवतक पर्वत पर पहुंचती है। अरिष्टनेमि पर वह मुग्ध हो जाती है। सखियां राजकुमारी को शात करने लगती है, किन्तु अरिष्टनेमि के स्मरण मात्र से उसकी आंखें डबडबा पाती हैं । संयोग से राजा समद्रविजय श्रीकृष्ण को महाराज उग्रसेन के पास अरिष्टनेमि के लिए राजीमती की याचना के साथ भेजते है और उग्रसेन अपनो सहमति प्रदान कर देते हैं । दोनों पक्षों में विवाहोत्सव के आयाजन की तैयारियाँ होने लगती हैं। बारहवां सर्ग-वर यात्रा सजी । अरिष्टनेमि रथारूढ़ होकर राजमार्ग पर क्रमशः आगे बढ़ रहे थे । भांति-भाँति के अलंकारों से सारा मार्ग सज्जित था । वधवेष में सज्जित राजीमती वर के स्वागतार्थ राज भवन के द्वार पर आकर उपस्थित होती है । तेरहवां सर्ग-रथ से उतरने के लिए अरिष्टनेमि प्रस्तुत होते हैं । इतने में वे अनेक पशु-पक्षियों का रुदन सुनते हैं और ठिठक जाते हैं। सारथी से उन्हें ज्ञात होता है कि विवाह के अवसर पर सामिष व्यंजनों के लिए अनेक पशु-पक्षियों को समीप के बाडे में बंद कर रखा है। यह सुनकर नेमिकुमार को अपना पूर्व भव स्मरण हो आता है। विवाह त्याग कर वे संयम का वरण करते हैं और तोरण से ही लौट जाते हैं । वे अपने आखेटक जीवन से लेकर जयन्त विमान में उत्पन्न होने तक का पूर्व भव वृत्तान्त भी सुनाते हैं। चौदहवां सर्ग- मुनि अरिष्टनेमि घोर तप करते हैं। कायोत्सर्ग पूर्वक तप में लीन मुनि शुक्ल द्वारा कर्मबन्धनों को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्ति कर लेते हैं। पन्द्रहवाँ सर्ग-केवली हो जाने पर देव भगवान की स्तुति करते हैं । विशाल समवशरण रचा जाता है। धर्मोपदेशार्थ भगवान् विभिन्न देशों में विहार करते रहते हैं। अन्त में अघातिया कर्मों का क्षयकर मुक्त हो जाते हैं। कथानक के आधार ग्रंथ आचार्य जिनसेन (प्रथम) कृत हरिवंश पुराण को प्रस्तुत काव्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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