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________________ जैन परंपरा श्रीकृष्ण साहित्य मातंग चाण्डाल के साथ रहने पर भी सतां/सज्जनों द्वारा मान्य है। यह विरोधाभास है । अतः जो नीच दुराचारी चाण्डाल के साथ रहेगा, वह सज्जनों द्वारा मान्य नहीं हो सकता। चाण्डाल हाथियों के सहित होने पर भी वह सज्जनों द्वारा मान्य था। यहां पर भी यही विरोधाभास है। इसी प्रकार यमक, उपमा, भ्रान्तिमान आदि के उदाहरण भी दृष्टव्य हैं । भाषा-शैली प्रसाद मधुर वाणो द्वारा संस्कृत काव्य को रस सरसता प्रवाहित करने के लिए प्रख्यात कवि महासेन को काव्यशैली वैदर्भी ढंग को है। इसी शैली का प्रयोग उनके काव्य में भी हुआ है। परिणामतः इसमें सरलता, प्रासादिकता ओर स्वाभाविकता के सहज दर्शन हो जाते हैं। पद-लालित्य इस काव्य को प्रमुख शैलोगत विशेषता है । स्थान-स्थान पर सूक्तियों के प्रयोगों से शैली और भो सशक्त हो उठो है। जैसे कुछ सूक्तियाँ इस पद में सूचित हैं। प्राकृतो हि विनयो महात्मनाम् । शाको हि नाम परमानवतामुपैति ।। प्रद्युम्नचरितम् सौंदर्य और शृंगार का काव्य है । प्रथम दो सर्ग तो बड़े ही रसयुक्त और आकर्षक हैं । काव्य के प्रणयन में कवि को सौन्दरानन्द, बुद्धचरित, रघुवंश, मेघदूत, कुमारसंभव आदि महान रचनाओं से प्रेरणा मिली है, ऐसा प्रतीत होता है । पदलालित्य के लिए निम्न उदाहरण द्रष्टव्य न दोनजाता नवलस्वभावा न निम्नगावा न कलंकितापि । जलाशया नैव च सत्यभामा भार्याभवत्तस्य प्रराजितश्रीः ॥ समाधि टूटने पर श्रीकृष्ण रुक्मिणी के उठते हए सौंदर्य का अवलोकन करते हैं, ऐसा कवि ने लिखा है निघुन्तुदः केशकलापमर्मणा, मुखेन्दुमादातुमि वाप संनिधिम् । अजायतास्याः सुपयोधरोन्नतिः समुन्मनीकर्तुमनंगकेकितम् ॥ शीतल वायुके चलने से संसार कांप रहा है और बादलों से मूसलाधार वृष्टि हो रही है । कृषक लोग कांपते हुए समस्त हलोपकरणों को छोड़कर घर चले गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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